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________________ ४.- १२) सिद्धान्तसारः प्रपञ्चबहुलावृत्तात्कूटमानादितोऽपि यत् । वञ्चना प्राणिनामुक्ता माया मायाविजितः ॥६ हिसासत्यमशौचं च तस्य चौयं निरन्तरम् । पापीयान् सोऽस्ति सा यस्य प्रपञ्चबहुला स्थितिः॥ अन्यच्चित्ते करोत्यन्यच्चेष्टायामन्यदेव हि । मायावी तस्य किं शौचमुच्यते दुष्टदुर्मतेः ॥ ८ मायाविनःप्रपञ्चाढ्या वञ्चयन्ति जगत्रयम् । तस्यात्मवञ्चनामात्रं दोषं कि निगदाम्यहम्॥९ इति दोषवती ज्ञात्वा वर्जयन्ति विचक्षणाः । मायां त्रिधापि दूरेण पापं परिजिहीर्षवः ॥ १० धर्म जिघृक्षुभियं मिथ्यात्वं सर्वथा तयोः । सहानवस्थितिनित्यं विरोधो यावता महान् ॥ ११ मिथ्याशल्यमिदं दुष्टं यस्य देहादनिःसृतम् । तस्यापदाभिभूतस्य निर्वृतिर्न कदाचन ॥ १२ (माया शल्य,) फसानेकी प्रचुरता जिस स्वभावमें रहती है उसे माया कहते है। धान्यादि नापने के लिये खोटे बाट, नाप आदिक रखकर उससे धान्यादिक पदार्थ ग्राहकको कम देकर फसाना माया है ऐसा मायारहित मुनियोंने कहा है । उपर्युक्त प्रकारसे फसानेका प्रचुर स्वभाव जिसका है वह पापी समझना चाहिये । उससे हिंसा, असत्य, अपवित्रता और चोरीके दोष निरन्तर होते हैं ॥ ६-७॥ __मायावी- कपटी मनुष्य मनमें अन्य विचार करता है तथा शरीरसे और वाणीसे अन्य चेष्टा करता है । इसलिये वह दुष्ट-दुर्बुद्धि क्या पवित्रता धारण कर सकता है ? मायावी महान् अपवित्र है ।। ८॥ ___ कपटी पुरुष प्रपंच करने में - फसाने में चतुर होते हैं, वे त्रैलोक्यको फसाते हैं। जब वे त्रैलोक्यको फसाते हैं, तब उनके स्वयं-अपनेको फसानेके दोषको मैं क्या कहूं ? अर्थात् मायावी पुरुष अपनेको सबसे जादा फसाता है, जिससे दीर्घकाल संसारमें उसे घूमना पडता है। अतः उसके आत्मवंचना दोषका वर्णन मैं नहीं कर सकता ॥ ९ ॥ माया महादोषोंसे भरी है ऐसा जानकर पापत्याग चाहनेवाले चतुर पुरुष मन वचन और कायसे उसे छोड़ देते हैं।॥ १०॥ (मिथ्यात्व-शल्य-त्याग ।) धर्मग्रहण करनेकी इच्छा करनेवाले पुरुषोंको मिथ्यात्वका सर्वथा त्याग करना चाहिये। क्योंकि धर्म और मिथ्यात्व इन दोनों में सहानवस्थिति नामक महान विरोध दोष हमेशासे है। एकस्थान में-एकाश्रयमें दो विरोधी पदार्थ न रहना उसे सहान कहते हैं। जैसे शीत और उष्ण, सर्प और नकुल, वैसे धर्म जहां रहता वहां मिथ्यात्व नहीं रहता। जहां मिथ्यात्व रहता है वहां धर्म नहीं रहता। यह मिथ्यात्व शल्य जिसके देहसे नहीं निकल गया ऐसे मिथ्यात्वसे प्राप्त हुए दुःखोंसे पीडित पुरुषको कभीभी मोक्ष प्राप्त नहीं होगा ॥१११२॥ १ आ. पापीयसोऽस्ति २ आ. मात्रदोषम् . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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