SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७०) सिद्धान्तसारः (४. १३ जिनोक्तानां हि भावानामश्रद्धानकलक्षमम् । शुद्धाशुद्धविमिश्रादिभेदतस्तत्रिधा मतम् ॥ १३ एकमप्यक्षरं यस्तु जिनोदितमनिन्दितम् । अन्यथा कुरुते तस्याप्यानन्त्यं संसृतेर्भवेत् ॥ १४ । यस्तु तत्त्वमिदं सर्व जीवाजीवादिगोचरम् । विपरीतं करोत्येष कि स्याज्जानादि केवली ॥१५ क्षणं क्षणान्तरस्थायि नित्यं क्षणविनश्वरम् । अभावो भाव इत्येवं भावोऽभाव इति ध्रुवम् ॥ १६ चलं स्थिर स्थिरं यच्च चञ्चलं तत्समन्ततः । उच्चर्नीचस्तथा नीचरुच्चं तदवरं वरम् ॥ १७ अतत्त्वं तत्त्वमित्येवं तत्त्वं वा तत्त्वमित्यपि । विपरीतं प्रपश्यन्ति मिथ्यात्वविषमोहिताः॥१८ मिथ्यात्वान्धत्तमो घोरं येषा हृदयति तत् । तत्त्वार्थांस्ते न पश्यन्ति मदिराकुलिता इव ॥१९ प्रमाणनयनिर्णीतं न स तत्त्वं प्रपद्यते । सुष्ठु स्वादुरसं पित्तज्वरेणाकुलितो यथा ॥ २० (मिथ्यात्वके भेद।)- जिनेश्वरके कहे हुए पदार्थोपर श्रद्धान करना यह मिथ्यात्वका मुख्य लक्षण है। इस मिथ्यात्वके शुद्ध, अशुद्ध और मिश्र ऐसे तीन भेद हैं । इसेही सम्यक्त्व मिथ्यात्व और सम्यग्-मिथ्यात्व कहते हैं ।। १३ ॥ जिनेश्वरका कहा हुआ प्रशंसनीय एक अक्षरभी जो अन्यथा करता है उसेभी अनन्त, संसारकी प्राप्ति होगी । अर्थात् जिनेश्वरने त्रिकालाबाधित वस्तुस्वरूप कहा है परन्तु उसके विपरीत एक अक्षरकाभी परिवर्तन मिथ्यात्वके वश होकर जो करेगा उसे मिथ्यात्वका तीव्र बन्ध होनेसे निगोदावस्था में दीर्घकाल भ्रमण करना पडेगा ॥१४॥ . . . जिनेश्वरने जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा मोक्षका यथार्थ स्वरूप कहा है। परंतु मिथ्यादृष्टि उसका विपरीत श्रद्धान करता है, वह ज्ञानादिको केवली समझता है किन्तु ज्ञानादि क्या केवली है ? तात्पर्य-विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध आत्मतत्त्व नहीं मानता है वा, केवल ज्ञानको ही मानता है, वह ज्ञानही केवली होता है ऐसा समझता है परन्तु यह विपरीत श्रद्धान है ॥ १५ ॥ (विपरीत मिथ्यादृष्टिका स्वरूप।)- जो वस्तुपर्याय एकक्षणके अनंतर नष्ट होनेवाली है उसे अनेक क्षणतक रहेगी ऐसा कहना । जो नित्य है उसे तत्क्षण नष्ट होगी ऐसी श्रद्धा करनाअभावको भाव कहना, ये सब निश्चयसे उलटे हैं । अर्थात् जिनेश्वरने तत्त्वस्वरूप कथञ्चित्क्षणिक, कथञ्चित्-अक्षणिक, स्वस्वरूपकी अपेक्षासे कथञ्चित्-भावात्मक, परस्वरूपकी अपेक्षासे कथञ्चित् अभावात्मक कहा है। परंतु मिथ्यात्वके उदयसे जीव अभावको भाव, और भावको अभावरूप श्रद्धा करता है। मिथ्यात्वविषसे मोहित लोग चल पदार्थको अचल देखते हैं । अचलको चल देखते हैं। उच्च पदार्थको नीचा देखते हैं और नीचेको ऊंचा देखते हैं । हीनको श्रेष्ठ समझते हैं। इस प्रकार विपरीत श्रद्धानीकी दृष्टि होती है। जिनके मनमें घोर मिथ्यात्वांधकार वास कर रहा है वे लोग मदिरापानसे उन्मत्त बने हुए मनुष्यके समान जीवादि तत्त्वोंके यथार्थस्वरूपको नही देखते हैं। पित्तज्वरसे पीडित मनुष्य जैसा सुंदर मधुर रसयुक्त अन्नभी कटुक समझता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy