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________________ चतुर्थोऽध्यायः अहिंसादीनि यान्येवमुदितानि मयाधुना । श्रीगुरूणां प्रसादेन तानि द्वधा भवन्ति च ॥१ देशतोऽणुव्रतान्याहुः सामस्त्येन तथा पुनः । महाव्रतानि पूतानि भवन्ति भविनामिह ॥ २ तद्वान्तती द्विधा ज्ञेयः सागारेतरभेदतः। परं निःशल्य एवासौ तस्माच्छल्यमुदीर्यते ॥३ शृणाति प्राणिनं यच्च तत्वज्ञैः शल्यमीरितम् । शरीरानुप्रविष्टं हि काण्डादिकमिवाधिकम् ॥४ शारीरमानसीं बाधां कुर्वत्कर्मोदयादि यत् । मायामिथ्यानिदानादिभेदतस्तत्रिधा मतम् ॥ ५ चौथा अध्याय । ( अणुव्रत और महाव्रतरूप अहिंसा दिव्रतोंका वर्णन । )- श्रीगुरुओंके प्रसादसे जो हिंसादिक व्रतोंका मैंने इस समय तृतीय अध्यायमें वर्णन किया है उनके दो भेद होते हैं ॥ १ ॥ संसारी जीवोंके अहिंसादिव्रत एकदेशसे पालन करनेसे पवित्र अणुव्रत होते हैं और संपूर्णतासे पालन करनेपर पवित्र महाव्रत होते हैं । स्पष्टीकरण- अनन्तानुबंधि क्रोध, मान, माया, लोभ और अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ इन आठ कषायोंका क्षयोपशम होनेसे और प्रत्याख्यान-कषाय तथा संज्वलन-कषाय और यथा संभव नौ नोकषायोंका उदय होनेपर जीवको एकदेश त्यागकी बद्धि उत्पन्न होती है तब वह पांच पापोंका एकदेश त्याग करता है। तथा जब उसको अनंतानुबंध्यादि बारह कषायोंका क्षयोपशम होकर संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, ऐसे चार कषायोंमेंसे किसी एकके देशघातिकस्पर्द्धकका उदय होता है तब पांच पापोंका पूर्ण त्याग बुद्धि उत्पन्न होती है, तब वह जीव अर्थात् मुनि महाव्रत धारण करता है । इस प्रकार अणुव्रती गृहस्थ और महाव्रती मुनि ऐसे व्रतिकोंके दो भेद होते हैं । परंतु ये दोनों व्रती निःशल्यही होते हैं । इसलिये अब शल्यका वर्णन हम करते हैं ।। २-३ ॥ जो प्राणीको शृणाति-पीडा देता है वह शल्य है, ऐसी तत्त्वज्ञोंने शल्य शब्दकी व्याख्या की है ( शृणाति प्राणिनं पीडयति इति शल्यं ) जैसे शरीरमें घुसा हुआ बाणादिक शल्य प्राणीको अधिक व्यथित करता है वैसे माया, मिथ्यात्व, निदान ये तीन प्राणीको संसारभ्रमणका दुःख देते हैं, इसलिये इनको शल्य कहना चाहिये ॥ ४ ॥ - शारीरिक और मानसिक पीडा देनेवाला कर्मोंका उदय, क्षयोपशमादिक रूप जो माया, मिथ्यात्व और निदान भेदसे तीन प्रकारका शल्य है वह जीवोंको पीडा देता है ।। ५ ॥ . १ आ. शब्द ः २ आ. शारीरी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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