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________________ -३. ११७) सिद्धान्तसारः देशकालबलतो विशुद्धधीर्यः करोति करुणापरायणः । सद्व्रतं जिन मतानुसारतः स व्रती भवति शल्यर्वाजितः ॥ ११४ ज्ञानदर्शनविशुद्ध चेतसामाश्रितं व्रतमिदं प्रजायते । निर्मलं मलविलोलचेतसां नापरेण कलितं कदाचन ॥ ११५ प्राप्तमानुषभवे हि दुष्टधीर्यो व्रतानि न दधाति मानवः । सोऽत्र साधुसुमतेरसंभवाद्भूरिजन्मजलघावटाटयते ॥ ११६ इत्यवेत्य भवभारभीरवः साधवोऽत्र चरणं चरन्ति ये । तैः स्वरूपममलं सुदुर्लभं स्थीयते समुपलभ्य चात्मनः ॥ ११७ इति श्रीसिद्धान्तसारसंग्रहे' पण्डिताचार्यनरेन्द्रसेनविरचिते' अहिंसादिपञ्चव्रतनिरूपणं * तृतीयः परिच्छेदः । हैं) तथा आगममें कहा हुआ आचार इन सब बातोंका योग्य विचार करके आचारका उपदेश करनेवाले यतीश्वर सज्जनोंके गुरु हैं ।। ११३ ।। (६७ ( व्रतीका स्वरूप । ) - देश, अनूप, जांगल और साधारण ऐसी देशकी अवस्थाओंका हिमकाल, वर्षाकाल, उष्णकाल ऐसे कालका और अपनी शक्ति और वात, पित्त कफादिरूप प्रकृति इन बातोंका जो विचार करता है ऐसा निर्मल बुद्धिका पुरुष प्राणिदयामें तत्पर होकर जिनमत के अनुसार माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योंसे रहित होता हुआ निरतिचार अहिंसादि व्रत धारण करता है, वही व्रती होता है। ज्ञान और सम्यग्दर्शनसे जिनका चित्त निर्मल हुआ है, उनका यह व्रतपंचक निर्मल होता है किन्तु मलिनचित्तवाले पुरुषोंका व्रत शल्यसे और मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान से युक्त होनेसे कदापि निर्मल नहीं होता ।। ११४- ११५ ॥ ( अव्रती संसारमें भ्रमण करता है । ) - जिसको मनुष्यभव प्राप्त हुआ ऐसा जो दुर्बुद्धि मनुष्य व्रत धारण नहीं करता है वह सज्जनोंकी बुद्धिके अभाव से अपार संसारसमुद्रमें दीर्घकालतक भ्रमण करता है ।। ११६ ॥ इस प्रकार व्रतोंका स्वरूप और उसका फल जानकर संसारभारसे भययुक्त जो साधु इस भरतक्षेत्रमें सम्यक्चारित्रका पालन करते हैं वे अत्यन्त दुर्लभ ऐसा अपना आत्मस्वरूप प्राप्त कर आनन्दसे मोक्षमें रहते हैं ।। ११७ ॥ श्रीपंडिताचार्यनरेन्द्रसेन विरचित श्रीसिद्धान्तसारसंग्रह नामक ग्रंथ में अहिंसादि पांच व्रतोंका निरूपण करनेवाला तीसरा अध्याय समाप्त हुआ ।। Jain Education International १ आ. 'श्री' इति नास्ति २ आ. पंडित इति नास्ति ३ आ. अहिंसादिपञ्चव्रतनिरूपणं इति नास्ति. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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