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________________ -३. ८९) सिद्धान्तसारः (६३ अस्यापि भावनाः पञ्च भावनीया मनीषिभिः । स्त्रीकथाश्रवणाद्याश्च ब्रह्मचर्य प्रपित्सुभिः॥ ८३ यः प्रमादाकुलो नित्यं कन्दर्पण कथितः। रामारागकथादीनां श्रावकस्तस्य किं वतैः ॥ ८४ तत्त्यागो भावनाभाणि भावनाविधिकोविदः । आद्या ब्रह्मवतस्येयं शर्मकर्मविधायिनी ॥ ८५ स्त्रीणामवयवाः सर्वे दृष्टिमार्गगता अपि । ब्रह्मव्रतस्य नामापि घ्नन्ति साधोरपि क्षणात् ॥८६ साङ्गोपाङगं स्त्रियो रूपं दृष्ट्वा ह्यानतमौलयः। साधवो यान्ति मेघाम्बुहता गाव इव क्षितौ॥८७ हसितं क्रीडितं पूर्वरतानुस्मरणं पुनः । आलिङगनं स्त्रिया नैव स्मरन्ति ब्रह्मचारिणः ॥८८ सरसं वृष्यमाहारं कन्दर्पोद्रेककारणम् । साधवो नैव गृह्णन्ति चतुर्थवतमाश्रिताः ॥ ८९ (ब्रह्मचर्यव्रतकी पांच भावनायें ।) स्त्रीकथा-श्रवण-त्याग, स्त्रीके मनोहर स्तनमुखादिक अवयवोंको देखनेका त्याग, पूर्वकालमें उनके साथ भोगे हुए संभोगसुखके स्मरणका त्याग, बल उत्पन्न करनेवाले और प्रिय ऐसे घृतादिरसोंका त्याग और अपने शरीरको वेषभूषादिसे अलंकृत करनेका त्याग ऐसी पांच बातें ब्रह्मचर्य धारण करनेवालोंको योग्य है, स्त्रीकथा-श्रवणादिकोंको छोडकर इनसे विरुद्ध भावनायें विद्वानोंसे भाई जाती हैं । ८३ ॥ जो कन्दर्पसे-कामविकारसे हमेशा पीडित होकर प्रमादी-स्वच्छंदी उन्मत्त होता है और स्त्रीविषयके प्रेमको बढानेवाली कथा सुनता है, स्त्रियोंके मनोहर अवयव देखता है उसके व्रत निष्फल होते हैं ॥ ८४ ॥ उपर्युक्त पांच बातोंका जो त्याग उसे भावनाविधिको जाननेवाले विद्वान् ‘भावना' कहते हैं। स्त्रीरागकथाका जो त्याग है वह पहिली ब्रह्मचर्य व्रतकी भावना है । वह सुख देनेवाले कर्मका-सद्वेद्यादि शुभकर्मोंका बंध करनेवाली है ।। ८५ ॥ स्त्रियोंके सर्व अवयव दृष्टिमार्ग में आनेमात्रहीसे साधुओंके ब्रह्मचर्य-व्रतका नामभी रहने नहीं देते तो अन्य लोगोंका ब्रह्मचर्य स्त्रियोंके अवयव देखनेसे कैसे टिक सकता है ? कदापि नहीं टिक सकता ॥ ८६ ॥ मेघवृष्टिसे ताडित बैल अपना मस्तक नीचे करके जैसे जाते हैं वैसे उपाङ्गोंका रूप देखकर मस्तक नम्रकर अर्थात् स्त्रियोंके सुंदर अवयवोंसे अपनी दृष्टि हटाकर सज्जन जाते है ॥ ८७॥ स्त्रियोंका हसना, उनकी क्रीडा, उनके पूर्व संभोगका स्मरण, और उनके आलिङ्गनका स्मरण, ब्रह्मचारी नहीं करते हैं ।। ८८।। जो कामपीडाकी तीव्रताका कारण है, ऐसा सरस और उन्मत्त बनानेवाला आहार ब्रह्मचर्य-व्रत धारण करनेवाले मुनिजन लेतेही नहीं ॥ ८९ ॥ १ आ. स्त्रियां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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