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सिद्धान्तसारः
(३.७५
यस्या दर्शनमात्रेण नरः पञ्चत्वमञ्चति । सर्पिणीव सतां रामा हेया दृष्टिविषा न किम् ।। ७५ ज्वालेव या दुष्टा स्पृष्टा दहति मानवम् । समुज्ज्वलापि सा हेयाबला बलविनाशिनी ॥ ७६ अपि काष्ठमयं रूपं यस्या हरति तत्क्षणात् । संयमस्तिमितं चेतो मुनेरप्यचलं बलात् ॥ ७७ तावद्विवेकवैदग्ध्यं' नरो बहति बुद्धिमान् । यावद्विलासिनी दृष्टिशरपातैर्न हन्यते ॥ ७८ अहो दुष्टाशया रामा रमणीयमपि प्रियम् । परिहत्यापरं याति निस्त्रपा दुष्टचेष्टिता ॥ ७९ यस्यामधिगता जीवा महापापानि कुर्वते । आत्मबन्धवधादीनि सद्भिस्त्याज्या त्रिधापि सा ।। ८० इति दोषवतीं नारीं नरो यो नैव मुञ्चति । नैव मुञ्चति सोऽवश्यं संसारं शर्मर्वाजितम् ॥ ८१ .स कृती कृतिनां नाथस्तस्य सौख्यं निरन्तरम् । यः पुनाति परात्मानं स ब्रह्मतपसा सुधीः ॥ ८२
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art बहती है वैसे भी कामाकुल होकर पतिकुल और पितृकुलका नाश करती है । नदी समुद्रको बढाती है और स्त्री संसारसमुद्रको बढानेवाली है । इसलिये विद्वान् उसका त्याग करते हैं ।। ७४ ॥ जैसे दृष्टिविषा सर्पिणी क्रोधसे जिसको देखती है वह तत्काल मृत्युवश होता है उसी तरह स्त्रीरूपी दृष्टिविषा सर्पिणीके दर्शनमात्र से मनुष्य मरणको प्राप्त होता है । इसलिये सज्जन उसका त्याग करते हैं ।। ७५ ।।
वह्निज्वाला - अग्निशिखा स्पर्श करनेवालेको जलाती है, वैसेही दुष्ट स्त्रीको जो स्पर्श करता है उस मानवको वह जला देती है । अग्निज्वाला प्रकाशमान होनेपरभी जैसी त्याज्य है वैसी यह स्त्री सुंदर होनेपर भी बलविनाशक होनेसे त्याज्य है || ७६॥
काष्ठसे निर्मित स्त्रीरूपभी संयमसे दृढ और निश्चल ऐसे मुनिके तत्काल हरण करता है । इसलिये शीलवान पुरुष स्त्रीकी मूर्तिसेभी सदा दूर
जबतक विलासवती स्त्रीके नेत्ररूप बाणोंके आघातसे मनुष्य विद्ध नहीं होता तबतक उसमें विवेक वास करता है और तबतक वह बुद्धिमान् पुरुष चातुर्यको धारण करता है ।। ७८ ।। ( दुष्ट स्त्रीके दुराचारका वर्णन । ) - दुष्ट अभिप्रायवाली तथा दुराचारिणी स्त्री अपने सुंदर पतिकोभी छोडकर निर्लज्ज होकर अन्य पुरुषके पास जाती है, यह आश्चर्य है, विचारणीय है ।। ७९ ॥
जिसके वश होकर जीव महापापोंको करते हैं और बंध-वधादिक कष्टोंको अनुभवते हैं ऐसी स्त्रीका मन-वचन-कायोंसे सज्जन त्याग करते हैं ॥ ८० ॥
मनको बलात्कार से रहते हैं ।। ७७ ।।
ऐसी दोषोंसे भरी हुई स्त्रीको जो पुरुष नहीं छोडता है वह सुख-रहित संसारको कभी भी नहीं छोड़ता । स्त्रीके मोहसे मोहित हुए पुरुषोंको कदापि मोक्षप्राप्ति नहीं होती ॥ ८१ ॥
जो बुद्धिमान् पुरुष ब्रह्मचर्यरूपी तपसे अपने उत्तम आत्माको पवित्र करता है वह सज्जन सज्जनोंका पंडितोंका नाथ होता है और उसे निरन्तर सौख्यकी प्राप्ति होती है ॥ ८२ ॥
१ आ. वैदग्धीम् २ आ. शर्मवजितः
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