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________________ -३. ७४) सिद्धान्तसारः समस्तसंयमाधारः स एवाभिमतः सताम् । यस्यास्ति निर्मलं लोके ब्रह्मचर्य परं तपः ॥ ६९ रामाचक्षुःक्षुरप्रेण क्षिप्रं दुर्गतिदायिना। भिद्यते यस्य नो चेतः स धन्यतम ईरितः ॥ ७० यो दधाति नरः प्राज्ञश्चतुर्थव्रतमुत्तमम् । सोऽश्नुते सुभगः सौम्यः सिद्धिसौख्यं चतुविधम् ॥ ७१ तमोमयी महाभीमा शुद्धमार्गापहारिणी । रामारात्रिस्त्रिधा त्याज्या दुष्टसत्वसुखावहा ॥ ७२ स्रावि' दुर्गन्धबीभत्सं कृमिजालसमाकुलम् । रामाकलेवरं मूढाः सेवन्ते शुनका इव ॥ ७३ नीचर्गच्छति या नित्यं तटद्वयनिपातिनी। रामासरिद्भवाम्भोधिवर्द्धनी वय॑ते बुधैः ॥ ७४ शरीरसे मैथुनसेवन नहीं करना, नहीं करवाना और मैथुन सेवनवालोंको अनुमति न देना । इसप्रकार नवधा मैथुनत्याग मुनिगण करते हैं ।। ६८ ॥ ब्रह्मचर्य उत्तम तप है । जगतमें जिस पुरुषने इस व्रतका निर्मल पालन किया है वह पुरुष संपूर्ण संयमोंका आधार समझना चाहिये तथा वही सज्जनोंको मान्य है ।। ६९ ।। ( अत्यंत धन्यवादका पात्र कौन है ? )- शीघ्र दुर्गति देनेवाली स्त्रीके नेत्ररुपी बाणसे जिसका मन भिन्न नहीं हुआ है, वह पुरुष अतिशय धन्य है, धन्यवादके लिये पात्र है ।। ७० ॥ जो बुद्धिमान पुरुष इस ब्रह्मचर्य नामक उत्तम चतुर्थव्रतका पालन करता है, वही सुभगसुंदर है और वही सौम्य-शांत है तथा वही चार प्रकारके मुक्तिसुखोंका अनुभव लेता है। अन्योंको ऐसा सुख कदापि नहीं मिलेगा । अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनन्तशक्ति इनको चार प्रकारका मुक्तिसुख कहते हैं ।। ७१ ॥ (स्त्री रात्रि और नदीके समान है। )- यह रामारात्रि-स्त्रीरूपरात्रि अंधकारमय है अर्थात् अज्ञानमय है । ज्ञानीभी उसके संगसे अज्ञानी मोही होते हैं । रात्रि महाभय उत्पन्न करती हैं । स्त्रीभी भयदायक है । उसका अभिलाष करनेवालोंपर अनेक संकट आते हैं, इसका सबको प्रत्यक्ष अनुभव आता है । शुद्ध मार्ग अंधकारमय रात्रिसे आछादित होता है । तथा स्त्रीरूपी क्षमार्ग. जो कि अत्यंत निर्दोष होनेसे शद्ध है. उसको आच्छादित करती है। स्त्रीका संसर्ग करनेसे मन मोहान्धकारमय होता है, जिससे शुद्ध मोक्षमार्ग बिलकुल दिखताही नहीं। अंधकारमय रात्रि य रात्रि दृष्ट सर्प और चोर आदिकोंसे भरी रहती है, उनको वह सखदायक होती है। स्त्रीरूपी रात्रिभी दृष्टजारादिकोंको सख देनेवाली है, सज्जनोंको भयदायिनी है। अतः इसे मनवचनकायोंसे त्यागना योग्य है ।। ७२ ॥ स्त्रीका शरीर मलवाही, दुर्गंध और बीभत्स – ग्लानि उत्पन्न करनेवाला तथा असंख्यात किडियोंसे भरा हुआ है । मूढ पुरुष ऐसे स्त्रीशरीरका सेवन कुत्तेके समान करते हैं । ७३ । यह स्त्रीरूपी नदी नीच पुरुषका आश्रय करती है । जैसे नदी हमेशा नीच स्थानमें रहनेवाले समुद्रका आश्रय करती है। नदी जैसे अपने दोनों तटोंको विदीर्ण करती हुई पानीके १ आ. स्रवद् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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