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________________ ६०) सिद्धान्तसारः ( ३. ६४ नैष दोषो मतः साधोर्दानादानाद्यभावतः । अन्तरायक्षयादेतत्स्वयमेव प्रजायते ॥ ६४ शून्यागारपुरग्रामसंग्रहाद्भङ्ग इत्यपि । मिथ्याप्रमत्तयोगेन यतोऽमोषां परिग्रहः ॥ ६५ हिंसादीनि च पापाय संगतानि प्रमादिनाम् । अप्रमादवतां नापि तन्नामापि निगद्यते ॥ ६६ अत एव विशोध्यादौ मिथ्यात्वं शुद्धबुद्धयः । परिहारविशुद्धयर्थं सन्तो गृण्हन्ति तद्व्रतम् ॥६७ ब्रह्मचर्यं बुधाः प्राहुर्यच्च मैथुनवर्जनम् । नवधा धर्मविज्ञानां मुनीनां परमं तपः ॥ ६८ विनाश कैसे नहीं होगा ?' उत्तर - ' यह दोष नहीं है, क्योंकि कर्म और नोकर्मोंमें धनवस्त्रादिके समान देने-लेनेका व्यवहार नहीं है । साधुओंके अन्तरायकर्मका क्षय और क्षयोपमश होनेसे कर्म नोकर्मका संग्रह स्वयं होता है, उनमें देने-लेनेका व्यवहार नहीं होता। उनका प्रतिसमय आत्मामें आना जाना होता है । इसलिये चोरीका दोष साधुओंको नहीं लगता । अन्तरायकर्मका क्षयोपशम साधुओं को होता है । और केवली भगवानको तेरहवे गुणस्थानमें अन्तरायकर्मका क्षय होता है, जिससे अनन्त भोग उपभोगादि सामग्री स्वयं प्राप्त होती है । मुनियोंको तपश्चरणसे ऋद्धियां प्राप्त होती हैं । तोभी वे निःस्पृह होनेसे उनको अचौर्यव्रत स्वयं प्राप्त होता है ॥६३-६४ ॥ ( पुनः शंका और परिहार ) - 'भिक्षु - मुनि जब शून्यागार में गांवमें अथवा नगर आदिक में भ्रमण करते हैं तब मार्गसे उनको जाना पडता है। किसी श्रावक के गृहद्वारमें भी वे जाते हैं । मार्ग अथवा श्रावकका गृहद्वार वास्तविक अदत्त है । राजाने मार्गमें प्रवेश करनेके लिये उनको आज्ञा नहीं दी है और श्रावकने गृहद्वार के भीतर प्रवेश करो ऐसा नहीं कहा है, तोभी वे प्रवेश करते हैं । अतः यह अदत्तादान हुआ- 'अचौर्यव्रतका भंग हुआ ' ऐसा नहीं समझना । क्योंकि सामान्यतः सब लोगोंको मार्ग में प्रवेश करना और श्रावकद्वार में आहारार्थ प्रवेश करना मना नहीं है । प्रमत्तयोगसे इनमें प्रवेश किया जाना, कषायवश, लोभवश इनमें प्रवेश करना या इनका स्वीकार करना व्रतभंगका कारण होता है । प्रमादी लोगोंके हिंसादिक कार्य पापके कारण होते हैं । परंतु जो प्रमादरहित है, उन साधुजनोंमें पापनामका भी संपर्क नहीं हैं। साधुजन प्रमादयोगसे रहित होने से मार्ग या गृहद्वारका आश्रय करनेपरभी अचौर्यव्रतभंगसे या तज्जनित पापसे वे लिप्त नहीं होते ।।६५–६६॥ इसलिये शुद्धबुद्धिवाले सम्यग्दृष्टिजन मिथ्यात्वको शोधते हैं- दूर करते हैं और पापके परिहारार्थ तथा परिणामकी निर्मलताके लिये साधुगण अचौर्यव्रतको धारण करते हैं || ६७॥ ( ब्रह्मचर्यव्रतलक्षण | ) - धर्मही धन जिनका है, ऐसे मुनि नौप्रकारसे मैथुनका त्याग करते हैं। इस त्यागको विद्वान लोग ब्रह्मचर्य कहते हैं । यह व्रत मुनियोंका उत्तम तप है । मैथुन सेवन मनसे नहीं करना, नहीं करवाना और करनेवालोंको अनुमति नहीं देना । तथा वचनसे मैथुनसेवनके अश्लील शब्द नहीं बोलना, नहीं बुलवाना और बोलनेवालेको अनुमति नहीं देना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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