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________________ -३. ६३ ) सिद्धान्तसारः ( ५९ बन्धनं ताडनं कृत्तेरुत्कर्तनमतीव्यथाम् । इहैव लभते चौरो मृतो याति तमः प्रभाम् ॥ ५८ तृणमात्रमपि द्रव्यं परकीयं हृतं नृणाम् । बहुदुःखप्रदं लोके कालकूटविषाशनात् ' ॥ ५९ इति मत्वा महादोषमस्तेयव्रतधारिणः । सन्तो धर्मरता नित्यं भवन्ति भवभीरवः ॥ ६० शून्यागार विमुक्तैकवासौ धर्माविसङ्गतिः । परस्यानुपरोधत्वं भैक्ष्यशुद्धिरिति ध्रुवम् ॥ ६१ भावनाः पञ्च भव्यास्ता' अस्तेयव्रतमाश्रिताः । भावनीयाः प्रयत्नेन भवस्यान्तमियासुभिः ॥ ६२ पापात्मनो वदन्त्ये कर्मनाकर्मसंग्रहात् । अदत्तव्रतभङ्गोऽपि जायते न कथं सताम् ॥ ६३ ( चोरको इहपरलोक दुःखदायक हैं। ) - इस लोकमें चोर बन्धन, ताडन और शरीरका चर्म निकालना आदिक अतिशय दुःखको प्राप्त होता है और मरणोत्तर वह तमःप्रभा नरकमें जन्म धारण करता है ।। ५८ ।। तृणके समान तुच्छ ऐसा थोडासा भी परकीय द्रव्य हरण करना लोगोंको कालकूट विषके भक्षण करनेसेभी अधिक दुःख देनेवाला है । इस प्रकार चोरी करने में महादोष है ऐसा समझकर अचौर्यव्रत धारण करनेवाले तथा संसारसे डरनेवाले सज्जन धर्म में नित्य तत्पर रहते हैं ।। ५९-६०।। ( अचौर्यव्रतकी पांच भावनाये । ) - शून्यागारावास, विमोचितावास, धर्माविसंगति - सद्धर्मअविसंवाद, परोपरोध न करना, भैक्ष्यशुद्धि ऐसी ओ पांच भावनायें अचौर्य व्रतकी हैं। अचौर्यव्रतसंबंधी ये पांच भव्य भावनायें भावने योग्य हैं । संसारके अंतके प्रति जानेकी इच्छा करनेवालों के द्वारा प्रयत्नसे इनकी भावना करना योग्य है । इन पांच भावनाओंका स्पष्टीकरण-पर्वतगुहा, वर्षकी पोल, नदीतट इत्यादिक स्थान अस्वामिक होनेसे इनको शून्यागार कहते हैं । ऐसे स्थान में रहने से अचौर्यव्रतका पालन होता है । शत्रुके भयसे छोडे हुए गांव, नगर, पत्तनादिको विमुक्तैकवा अथवा विमोचितावास कहते हैं, ऐसे स्थानोंमें रहना । यह मेरा है, यह आपका है, ऐसा साधर्मियोंके साथ झगडा नहीं करना । परके साथ हठ न करना । अमुक वस्तु मुझे चाहिये ऐसी प्रार्थनासे अन्यको संकुचित नहीं करना चाहिये । और भिक्षाकी शुद्धि रखना चाहिये अर्थात् पिण्डशुद्धिके प्रकरणमें जो दोष कहे हैं, उनका परिहार- त्याग करके आहार लेना । आहार में लंपटता होने से उसकी शुद्धिके प्रति अनादर होता है, जिससे दोषोंको त्याग करनेकी जिनाज्ञाका लंघन होनेसे चौर्यदोष उत्पन्न होता है ।।६१-६२ ।। ( कर्म - नोकर्मग्रहणभी चोरी है ऐसी शंकाका उत्तर ) - कोई पापी लोग ऐसा कहते हैं'सज्जन लोग - मुनिवर्ग पुण्यकर्म और उसके सहायक शरीरादि नोकर्मको ग्रहण करते हैं अर्थात् नहीं दिया हुवा कर्म-कर्म ग्रहण करनेसे वे चौर्यदोषके पात्र होते हैं । तब उनके अदत्तव्रत- अचौर्यव्रतका Jain Education International १. आ. यथा २. आ. यिमुक्तकावासो ३. आ. भव्यानां For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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