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________________ ५८) सिद्धान्तसारः (३. ५० महाव्रतमिदं पूतं कर्मास्रवनिरोधकम् । कर्मास्त्रवं निरुन्धानाः श्रयताशु महाधियः ॥ ५० क्रोधलोभसुभीरुत्वहास्यसावद्यभाषणः । प्रत्याख्यानं मताःपञ्च भावनाःसूनतस्य च ॥५१ अदत्तादानमाख्यातं स्तेयं स्तेयविजितैः । तद्वयावृत्तिर्मतं पूतमस्तेयवतमुत्तमैः ॥ ५२ क्षेत्रे ग्रामे गृहे घोषे रथ्यायां यत्र तत्र वा। भ्रष्टं नष्टं स्थितं वापि परद्रव्यं न गृह्यते ॥ ५३ यो यस्य हरते वित्तं स तज्जीवितहन्नरः । बहिरङ्गं हि लोकानां जीवितं वित्तमुच्यते ॥ ५४ धनजीवितयोर्मध्ये धनं बहुमतं नृणाम् । जीवितव्यव्ययेनापि तदिच्छन्त्यन्यथा कथम् ॥ ५५ मातरं पितरं वापि स्त्रियं बालं तपस्विनम् । स्तेनो निहन्ति पापात्मा न तस्मादपरो भुवि॥५६ व्याघ्रादिभ्योऽपि पापी स्याच्चौरो व्याघ्रादयो यतः । महातपःप्रवृत्तानामपि प्राणमलिम्लुचः॥५७ प्राप्त होती हैं इसमें कौनसा आश्चर्य है ? यह सत्यवचन महाव्रत है, पवित्र है, अशुभकर्मास्रवको रोकनेवाला है। जिन्हें अपने में कर्मास्रवको रोकना है, वे महाबुद्धिवान् लोग इसका शीघ्र आश्रय करें।॥ ४८-४९-५० ॥ ( सत्यव्रत-भावना।)- क्रोधका त्याग करना, लोभका त्याग करना, भयका त्याग करना, हास्यका त्याग करना तथा अवद्य भाषणका त्याग करना ऐसी पांच भावनायें सत्यव्रतकी हैं ॥५१॥ ( अचौर्यव्रतका लक्षण। )- चोरीका त्याग करनेवाले उत्तम पुरुषोंने दुसरेका दिया हुआ जो धनवस्त्रादिक ग्रहण करना वह चौर्य है, ऐसा कहा है । तथा उससे व्यावृत्त होना अर्थात् बिना दिये धनादिका ग्रहण नहीं करना वह पवित्र अचौर्यव्रत है ऐसा श्रेष्ठ गणधर परमेष्ठीने कहा है ।।५२॥ खेतमें, गांवमें, घरमें, घोषमें-अहीरोंके ग्राममें, मार्गमें, आँगनमें और जहां कहींभी गिरा हुआ, नष्ट हुआ अथवा स्थानस्थित ऐसा परद्रव्य है उसे नहीं लेना चाहिये । ऐसा परस्वामिक धन लेना चोरी है ॥५३॥ (धन बहिरंग प्राण है।)- जो जिसका धन हरण करता है, वह उसका जीवित हरण करता है, ऐसा समझना चाहिये । क्योंकि धन लोगोंका बहिरंग प्राण कहा जाता है ॥५४॥ (धन प्राणोंसेभी प्रिय है। )- धन और जीवित इन दोनोंमेंसे धन मनुष्योंको अत्यंत प्रिय है। यदि वह ऐसा नहीं होता तो लोग प्राणोंके व्ययसेभी उसे क्यों चाहते हैं ? ॥५५॥ (चोरसे अधिक पापी कोई नहीं हैं। )- चोर मातापिताकोभी मारता है। स्त्रीको, बालकको और तपस्वीकोभी मारता है । इसलिये इस जगतमें चोरसे अधिक पापी आत्मा कोई नहीं ॥५६॥ व्याघ्र, सिंह आदिकसेभी चोर पापी हैं क्योंकि वे व्याघ्रादिक हिंसक प्राणी महातपमें प्रवृत्त हुए तपस्वी जनोंके प्राणोंका हरण नहीं करते ॥५७।। १. आ. निरुन्धकम् २. आ. श्रयन्ति ३. सुमहाधियः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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