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________________ ( ३. ९० स्वशरीराङ्गसंस्कारं भूषावेषादिभिः क्वचित् । ब्रह्मव्रतविरुद्धं यत्तन्न जातु विधीयते ॥ ९० परिगृह्णाति येनेदं कर्म प्राणी दुरुत्तरम् । परिग्रहः स विज्ञेयो मूर्च्छा वा वस्तुगोचरा ।। ९१ बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विविधः कथितो जिनैः । चतुर्दशप्रकारोऽयमान्तरो दशधा बहिः ॥ ९२ क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं दासी दासस्तथा पुनः । सुवर्ण रजतं भाण्डं हिरण्यं च परिग्रहम् ॥ ९३ बाह्य दशप्रकारोऽयं संरम्भादिविशेषतः । अमीषां जायते नित्यं दुर्गदुर्गतिहेतुकः ॥ ९४ वेदत्रयं' च मिथ्यात्वं तथा हास्यादयश्च षट् । चतुष्कं तु कषायाणामान्तरोऽसौ निगद्यते ।। ९५ ममेदं भाव इत्येवं सङ्कल्पो यः परिग्रहः । ज्ञानादिष्वपि सोऽस्त्येव तत्राप्येष प्रसज्यते ॥ ९६ नायं दोषो मतः किञ्चिदप्रमत्तादियोगतः । ज्ञानादिग्रहणे मूर्च्छा नास्ति मोहप्रमाथिनि ॥ ९७ ६४) ब्रह्मचर्यव्रतके विरुद्ध ऐसे भूषणोंसे और चित्र विचित्र वस्त्रादि वेषोंसे युक्त अपने शरीरका संस्कार साधुजन कदापि धारण नहीं करते हैं ॥ ९० ॥ ( परिग्रहविरतिव्रत । ) - जिससे पार होना कठिन ऐसा कर्म जिससे प्राणी प्राप्त कर लेता है उसे परिग्रह समझना चाहिये। इसकोही 'मूर्च्छा' यह नाम है । धनादिकी जो अभिलाषा उसे मूर्च्छा कहते हैं । मूर्च्छाका कारण होनेसे धन, धान्य, दासीदास, वस्त्र, खेत, घर ये पदार्थ भी परिग्रह कहे जाते हैं । मुख्यतः आत्मामें जो अभिलाषा है वही परिग्रह है । उपर्युक्त धनधान्यादिकभी अभिलाषा के कारण होने से इनकोभी गौणतया परिग्रह कहते हैं । ये बाह्य परिग्रह हैं । जिनेश्वरोंने बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह ऐसे दो भेद कहे हैं । उनमेंसे अभ्यन्तर परिग्रहके चौदह भेद हैं और बाह्य परिग्रहके दस भेद हैं ।। ९१-९२ ॥ ( बाह्य परिग्रह ) - क्षेत्र-खेत, वास्तु-घर, धन- गौ, भैंस, घोडा आदिक, धान्य- शालि गेंहू आदिक, दासीदास - नोकर स्त्रीपुरुष, सुवर्ण-सोना, रजत-चांदी आदि, भाण्ड-पात्र, हिरण्यजिससे व्यवहार चलता है ऐसे रुपया आदि, ये सब बाह्य परिग्रह हैं ॥ ९३ ॥ सिद्धान्तसारः इन दश बाह्य परिग्रहके लिये मनुष्य संरंभ समारंभ आरंभादिक करते हैं । तथा वे दुःखदायक दुर्गतिके बंधके कारण होते हैं ।। ९४ ॥ ( अभ्यंतर परिग्रह । ) - तीन वेद - स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति शोक, भय, और जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय तथा मिथ्यात्व ये चौदा अभ्यन्तर परिग्रह कहे जाते हैं ।। ९५ ।। यह मेरा है ऐसा जो ममत्व - संकल्प वह परिग्रह है ऐसा यदि मानोगे तो यह मेरा ज्ञान है, यह मेरा दर्शन है, यह मेरा चरित्र है इत्यादि आत्मगुणोंमें भी ममत्व-संकल्प होनेसे उन्हेंभी परिग्रह कहना पडेगा ऐसी शंकाका उत्तर आचार्य ऐसा देते हैं- जिससे प्रमादयोग उत्पन्न होकर ममत्वसे पदार्थोंका ग्रहण होता है ऐसे संकल्पको परिग्रह कहते हैं । सम्यग्ज्ञानादिक गुण मोहका नाश करनेवाले हैं । उनके ग्रहण करनेमें मूर्च्छा १ आ. वेदद्वयं २ आ. रागो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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