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________________ ( २ ) तीसरे परिच्छेद में ग्रन्थकारने सामायिकादि पांच चारित्रोंका उल्लेख किया है । तदनन्तर पांच पापोंसे विरक्त होना यह व्रतका लक्षण कहा है। हिंसादिक पांच पापोंसे इस लोक और परलोक में दुःखकी प्राप्ति होती है । देव, अतिथि, मन्त्रसाधन तथा यज्ञादिकके लिये जो प्राणिहिंसा की जाती है वह अहिंसा नहीं हिंसा ही है। हिंसा करनेवाले जीव बालमृत्यु से ही मरते हैं । एकेन्द्रियावस्था से पञ्चेन्द्रियावस्थातक जितने क्षुद्रजन्म और मरण हैं वे सब हिंस्त्र प्राणियोंको ही प्राप्त होते हैं । “ यज्ञमें जो हिंसा होती है वह मंत्रसे पवित्र होनेसे पापका कारण नहीं है " ऐसे याज्ञिक विचारका खण्डन करते हुए ग्रन्थकारने उसको एक छोटेसे वाक्यमें उत्तर दिया है अर्थात् “ यदि तां प्रवर्तयेन्मन्त्रः पापात्मा च कथं न हि । अर्थात् यदि वह मन्त्र हिंसाका प्रवर्तन करनेवाला है तो वह भी पापमन्त्र ही है । इसके अनन्तर असत्य, चोरी आदि पापोंका वर्णन कर सत्यादि व्रतोंकी जैनागमसे अविरुद्ध आत्महितकारिता दिखलाई है । 33 कर्मन कर्मका संग्रह आत्मा प्रतिसमय करता है, परंतु वह किसीने नहीं दिया है, अतः यह चोरी है, इस शंकाका उत्तर आचार्यने यह दिया है " कर्मनोकर्मके ग्रहणमें दानादानादि व्यवहार नहीं होता अतः इसमें चोरीका प्रसंग नहीं । अन्तराय कर्मका क्षयोपशम होनेसे उनका ग्रहण स्वयं ही होता रहता है I " शून्यगृह, नगर, ग्रामादिकमें प्रवेश करने परभी साधुओंके मनमें प्रमत्तयोग न होने से उन्हें चोरीका दोष नहीं लगता । ब्रह्मचर्य व्रतका रक्षण करनेके हेतुसे साधुगण रसयुक्त पुष्टिकारक, कामोत्पत्ति करनेवाला आहार ग्रहण नहीं करते । धनधान्यादिकों में साधुओंको ममत्वबुद्धि न होने पर भी उनके मन में 'ज्ञानदर्शनादिक मेरे हैं' ऐसा संकल्प उत्पन्न होता है अतः उन्हें परिग्रहदोष क्यों नहीं होता इस शंकाका उत्तर आचार्यने यह दिया है 'ज्ञानदर्शनादिक भाव आत्माके स्वभाव तथा सत्यसुखके हेतु होनेसे त्याज्य नहीं हैं । अतः उनकी परिग्रह संज्ञा नहीं है । किन्तु कर्मोदयवश आत्मामें जो रागद्वेष तथा परपदार्थोंमें ममत्वभाव उत्पन्न होते हैं वे परिग्रहरूप होनेसे त्याज्य हैं । इस प्रकार साधुगण पांच पापोंके त्यागी होने से महाव्रती | हिंसादिक पांच पापोंका त्याग कर जो साधु चारित्र पालते हैं उनको आत्माका शुद्धस्वरूप प्राप्त होता है । चतुर्थ परिच्छेद में माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योंका त्याग करनेसे अहिंसादि भावोंको अणुव्रतपना तथा महाव्रतपना प्राप्त होता है यह बतलाया गया है । मिथ्यात्वशल्यके वर्णन में कहा गया है कि जीवादि पदार्थोंको सर्वदा और सर्वथा नित्य एवं अनित्य, गुणों से सर्वथा भिन्न वा अभिन्न आदि मान्यता प्रमाण सिद्ध नहीं होने से श्रद्धा में विपरीतता लाती है । तथा आत्मादिक पदार्थों में जो कर्मबन्ध, संसार - भ्रमणादिक दिखते हैं वे सिद्ध नहीं होते और व्रतोंका पालन, दोषत्याग, गुणकी प्राप्ति, आत्माकी कथंचिन्नित्यानित्यता जीवतत्त्व नहीं मानने से सिद्ध नहीं होंगे । इसलिये मिथ्यात्व शल्यका त्याग करना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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