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________________ प्रस्तावना १. ग्रन्थका नाम प्रस्तुत ग्रन्थके रचयिता श्रीनरेन्द्रसेनाचार्य हैं। इन्होंने इस ग्रन्थके पहले अध्यायके चौथे श्लोकमें 'तत्वार्थसंग्रहं वक्षे' इस चरणसे जीवादिक सप्त तत्त्वार्थोका संग्रह कहनेकी प्रतिज्ञा की है। ग्रन्थके प्रत्येक परिच्छेदकी पुष्पिकामें - सिद्धान्तसारसंग्रह' नामसे इस ग्रन्थका उल्लेख किया है। 'सिद्धः अन्तः निश्चयो स सिद्धान्तः' ऐसी सिद्धान्त शब्दकी निरुक्ति है। तदनुसार जीवादिक सप्ततत्त्वोंका निश्चय प्रमाण और नयोंके द्वारा करके, उसका सारसंग्रह . इस ग्रन्थमें किया है। इसलिये इसका सिद्धान्तसारसंग्रह' यह सार्थक नाम है। २. विषयपरिचय इस ग्रन्थके बारह परिच्छेदोंमें क्रमशः निम्नोल्लेखित विषय हैं। पहले परिच्छेदमें सम्यग्दर्शनका सुविशद वर्णन है । " रत्नत्रयधर्मसे मनुष्य जीवन सफल होता है। तथा वह समन्तभद्राचार्यके वचनके समान प्राप्त करना कठीन है।" ऐसा ग्रंथकारने लिखा है । " रत्नपरीक्षक रत्नकी परीक्षा कर उसे ग्रहण करते हैं । वैसे धर्मकी भी परीक्षा कर उसे ग्रहण करना चाहिये ।" " कुलक्रमसे प्राप्त हुए कुष्ठरोगको मनुष्य जैसे औषध सेवनसे नष्ट करते हैं वैसे कुलक्रमसे प्राप्त हुए अधर्मको भी विवेकी पुरुष छोडते है । कुलधर्मको नहीं छोडनेसे यशोधरादिक राजाओंके समान अविवेकी लोक दुर्गतिको प्राप्त हुए है।" यहां हिंसात्मक कुलधर्मका आश्रय करनेसे यशोधर राजाको दुर्गतिमें भ्रमण करना पडा यह दृष्टान्तसे दिखाया है, जिससे मिथ्या कुलधर्मकी त्याज्यता सिद्ध होती है। तदनन्तर सम्यग्दर्शन और उसके आनुषङगिक संवेग निर्वेगादिक गुणोंका उल्लेख कर सम्यग्दर्शनसे नरकतिर्यग् गति, भवनत्रिकदेवपद, स्त्रीत्व, नपुंसकत्व आदिकी प्राप्ति नहीं होती है ऐसा दिखाया है। सम्यग्दर्शनके बिना चारित्रकी प्राप्ति नहीं होती, सम्यग्दृष्टिजन गुणोंको ग्रहण करते है। सार्मिकोंके दोषोंको ग्रहण नहीं करते तथा उनके ऊपर अवर्णवाद कदापि नहीं करते हैं । इस प्रकारसे वर्णन कर प्रथम दर्शनाराधना पूर्ण की है। द्वितीय परिच्छेदमें सम्यग्ज्ञानके मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय तथा केवल ऐसे पांच भेदोंका विशद विवेचन है। पहले तीन ज्ञान मिथ्यात्वके उदयसे कुज्ञान होते हैं और सम्यक्त्वसे सम्यग्ज्ञान होते है । जिसे सम्यग्ज्ञान प्राप्त हुआ है उसके सदाचारको चारित्र कहते हैं। चारित्रका मूल कारण सम्यग्ज्ञान है । आचार्य नरेन्द्रसेनने इस अध्यायके अन्तिम श्लोकमें प्रथमादि आठ विभक्तियोंमें ज्ञान शब्दका प्रयोग कर अपनी रचनाचातुरी व्यक्त की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org www
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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