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________________ इसी मिथ्यात्व शल्यके प्रकरणमें ग्रन्थकारने बौद्धोंका क्षणिकवाद, चार्वाकका जडवाद, सांख्यका प्रकृतिवाद व अकर्तृत्व, मीमांसकका असर्वज्ञत्ववाद, वेदोंका अपौरुषेयत्ववाद, नैयायिक वैशेषिकका ईश्वरसृष्टिकर्तृत्व तथा श्वेताम्बरोंका कवलाहार व स्त्रीमुक्ति इन मान्यताओंका खण्डन किया है। तदनन्तर मायाशल्य और निदानशल्यके भेद देकर प्रशस्त निदान-अन्य भवमें जिनधर्मकी प्राप्तिके लिये योग्य देश, काल, क्षेत्र, भव तथा भाव और ऐश्वर्यकी चाह करना योग्य है ऐसा दिखाया है। इस प्रकार तीन निदानोंका वर्णन त्यक्तव्यकी दृष्टिसे इस परिच्छेदमें किया है। जो मुनिराज गुरुवचनरूपी संडसीसे ये तीन शल्य अपने हृदयसे निकालकर फेक देते हैं उनका चारित्र निर्मल होता है तथा वे स्वर्गवैभवको भोगकर मोक्षको प्राप्त करते हैं । पांचवें परिच्छेदमें जीवका ज्ञानोपयोग तथा दर्शनोपयोग लक्षण बताकर नयोंकी अपेक्षासे मूर्तिकत्व, अमूर्तिकत्व, कर्तृत्व, अकर्तृत्व, अभोक्तृत्व, भोक्तृत्व, व्यापकत्व, देहप्रमाणत्व आदिक भावोंका विवेचन आचार्यने किया है। तथा जो आत्माको सर्वथा अमूर्तिक, सर्वथा शुद्ध, सर्वथा व्यापक, सर्वथा अकर्ता आदि स्वरूप मानते हैं उनका खण्डन किया है। पांच प्रकारके संसार परिवर्तनके अनन्तर संसारी जीवके त्रस स्थावरादि भेदोंका खुलासा ग्रन्थकारने किया है । विग्रहगतिमें जीवका स्वरूप दिखाकर चार गतिओंमें चौरासी लाख योनियोंमें जीवके परिभ्रमणका वर्णन किया है। प्रसस्थावर जीवोंके आय, गणस्थान, तथा मार्गणाओंका वर्णन कर पञ्चमाध्यायकी समाप्ति की हैं। छठठे परिच्छेदमें अधोलोकस्थित सप्तनरकोमें नारकियोंके देहोंकी ऊंचाई, उत्कृष्ट जघन्य आयु तथा लेश्याओंका वर्णन किया है । सातवे परिच्छेदमें मध्यलोकका वर्णन है । इस लोकमें असंख्यात द्वीप तथा सागर एक दुसरेको वेष्टित करते हुए स्थित हैं। ठीक मध्यमें जम्बूद्वीप है। उसे लवणसागरने घेरा है। उसको धातकी खण्डने, उसे कालोद समुद्रने, कालोदको पुष्करद्वीपने-उसको पुष्करवर-समुद्रने इस प्रकार घेरकर द्वीपसमुद्र मध्यलोकमें स्थित हैं। सर्व द्वीपसमुद्रोंके बीचमें जम्बूद्वीप एक लाख योजन विस्तारका गोलथाली के समान है। इसमें हिमवदादिक छह पर्वत, और भरतादिक सप्त क्षेत्र हैं। भरतक्षेत्र मेरुपर्वतके दक्षिणमें है। वह विजयार्धपर्वत और गंगा-सिंधु दो नदियोंसे विभक्त होनेसे षट्खण्ड हुआ है। जिसे पांच म्लेच्छखण्ड तथा एक आर्यखण्ड कहते हैं । आर्यखण्ड भरतक्षेत्रके बीचमें है। इस जंबूद्वीपमें भरत, विदेह और ऐरावत ये तीन क्षेत्र कर्मभूमि हैं। तथा हैमवत, हरि, रम्यक, हैरण्यवत, देवकुरु और उत्तरकुरु ऐसी छह शाश्वत भोगभूमियां हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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