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विदेहके सीता तथा सीतोदा नदी, वक्षारपर्वत तथा विभंगा नदियोंसे बत्तीस विभाव हुए हैं। उन्हें देश कहते हैं। वह प्रत्येक देश पांच म्लेच्छखण्ड तथा एक आर्यखण्ड ऐसे छहों विभागोंसे युक्त है । भरतखण्डके समान एक विजया और दो नदियोंसे इन बत्तीस देशोंमें छह छह विभाग हुए हैं।
ढाई द्वीपोंमें पांच मेरुसंबंधी पांच भरत, पांच विदेह और पांच ऐरावत ऐसी पंद्रह कर्मभूमियां हैं। विदेहक्षेत्रके आर्यखण्डोंमें सदा मोक्षमार्ग चालू है । परंतु पांच भरत तथा पांच ऐरावतोंमें अवसर्पिणीके चतुर्थ कालमें तथा उत्सर्पिणीके तीसरे कालमें मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति होती है। अन्य कालमें भोगभूमिका स्वरूप इन क्षेत्रोंको प्राप्त होता है । ग्रंथकारने इन ढाई द्वीपोंमें नदी, पर्वत, द्रह, मनुष्य, उनकी आयु, इत्यादिक अनेक विषयोंका खूब विस्तारसे वर्णन किया है।
आठवे परिच्छेदमें भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा स्वर्गीयदेवोंके इन्द्रादि दशभेद, इनके जघन्यादि आयुर्भेद, लेश्या देहोत्सेधआदि का वर्णन है। ज्योतिष्क देवोंके भ्रमणसे यहां ढाई द्वीपोंमें दिवस, रात्रि, घटिका, मास, वर्षादि विभागरूप व्यवहार कालका प्रवर्तन हो रहा है। इसी प्रकरणमें सूर्य चन्द्रके ग्रह, नक्षत्र, तारकादि परिवारका भी वर्णन ग्रन्थकारने किया है। ब्रह्मलोकान्तवासी अर्थात् लौकान्तिक देव, सौधर्म स्वर्गका इन्द्र, उसकी पट्टमहिषीशची, सौधर्मेन्द्रको लोकपाल सोम, कुबेर, यम, वरुण तथा इशान, दक्षिणेन्द्र ये सब स्वर्गसे च्युत होकर मनुष्यभव धारण कर उसी भवमें कर्मक्षयसे मुक्त होते हैं। मुक्तजीवोंको जरामरणजित अव्याबाध ऐसा अनन्तसुख सदैव प्राप्त होता है । देव तथा नारकियोंके चार, पशुओंको पांच, तथा मनुष्योंको चौदह गुणस्थान हैं। इस प्रकार वर्णन कर इस अध्यायकी समाप्ति आचार्यने की है।
नौवे परिच्छेदमें अजीव आस्रव तथा बन्धतत्वका वर्णन किया गया है। पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्योंको जीवन गुणरहित होने में अजीव कहते हैं। कालद्रव्य एक प्रदेशी ही है और अन्यद्रव्य बहुप्रदेशी हैं। बहुप्रदेशी द्रव्योंको तथा पुद्गलाणुओंको ‘अस्तिकाय' कहते हैं। एक पुद्गलाणु अन्य पुद्गलाणुसे तथा स्कन्धसे जब मिल जाता है तब वह बहुप्रदेशी होता है । उस समय उसको काय कहते हैं।
जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि ये चार स्वतन्त्र द्रव्य नहीं हैं। ये पुद्गलकी ही अवस्थाविशेष हैं। मन भी स्वतन्त्र द्रव्य नहीं, भावमन जो कि ज्ञानस्वरूप होनेसे जीवमें अन्तर्भूत है और द्रव्यमन अष्टदल कमलाकार पुद्गलावस्था-विशेषरूप होनेसे पुद्गलमें अन्तर्भूत है।
वायु, मन तथा जलादिकोंमें पुद्गलपनाकी सिद्धि युक्तिसे आचार्यने दिखायी है।
शब्द आकाश गुण है ऐसा अन्यवादी कहते हैं परंतु शब्दभी पुद्गल है क्यों कि, शब्दमें स्थूल सूक्ष्मतादि धर्मोंके साथ अभिघातादि धर्म हैं। जो कि पुद्गलके सिवाय अन्यत्र उपलब्ध नहीं होते है। आकाशके समान यदि शब्द अमूर्तिक होता तो वह श्रवणयोग्य नहीं होता। उसमें भाषात्मकता नहीं आ सकती। दिशाकाभी आकाशमें अन्तर्भाव होता हैं क्योंकि आकाशके प्रदेशोंमेंही चन्द्र सूर्यादिके उदयादिसे पूर्व पश्चिमादि व्यवहार होते हैं । अतः जैनागममें छहही द्रव्य कहे हैं।
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