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________________ सिद्धान्तसारः (३. ३७ ऋतादपगतं तावदनृतं तद्वयुत्पत्तितः । चतुर्धा जायते जन्तोर्मूलं पापतरोमहत् ॥ ३७ युक्तायुक्तविमूढानां नित्यायेकान्तवादिनाम् । असदुद्भावनं निन्द्यमाद्यं हनृतमादिशेत् ॥ ३८ संवृत्त्यैव भवन्त्येते भावाः सर्वे निराश्रयाः। यद्वदन्ति तदेव स्याद्वितीयं सदपह्नवम् ॥ ३९ सावद्याप्रियगादि निन्द्यं त्रेधा मतं जिनः । असत्यं वचनं घोरं श्वभ्रभूमिप्रवेशकम् ॥ ४० विपरीतमिदं तावतृतीयमनृतं मतम् । केवली कवलं भुङक्ते स्त्रीमोक्षादि वदन्ति तत् ॥ ४१ ( असदुद्भावन नामक पहिला असत्य वचन । )- आत्मा ज्ञानादिगुणोंसे मुक्त-रहित कभीभी नहीं होता है, परंतु वह उनसे मुक्त-रहित है ऐसा कहना । आत्मा कर्मोंसे रहित होकर मुक्त दशाको धारण करता है। परंतु वह सदा संसारी रहता है ऐसा मीमांसक कहते है अर्थात् मुक्त-अमुक्त आदि भेदोंको न जाननेवाले जो नित्यादि एकान्तवादी लोग हैं, वे असदुद्भावन नामका पहिला निन्द्य भाषण बोलते हैं ऐसा समझना चाहिये । अर्थात् वस्तु सर्वथा नित्य नहीं होनेपरभी उसे नित्यही कहना । सर्वथा अनित्य वस्तु नहीं है, तो भी उसे अनित्यही समझना अर्थात् जो वस्तुका स्वरूप नहीं वह है ऐसा समझना, उसे प्रगट करना यह पहिला असदुद्भावन नामक निंद्य असत्य वचन है ॥ ३८ ॥ (सदपह्नव-नामक असत्य-भाषण।)- ये सब घटपटादि पदार्थ संवृतिसे हैं-मायासे हैं, वास्तविक नहीं हैं । इनका कुछ आश्रय नहीं है । जैसे स्वप्नमें हाथी, घोडा आदिक अनेक पदार्थ हम देखते हैं, परंतु उस समय हमारे सामने वे पदार्थ वास्तविक नहीं रहते हैं, इसवास्ते जागृतिसमयमेंभी ये पदार्थ नहीं हैं, ऐसा जो प्रतिपादन करना वह सदपह्नव है। अर्थात् पदार्थोंका अस्तित्व होनेपरभी वे नहीं है, ऐसा युक्त्याभासोंके द्वारा दिखाना यह दूसरा ‘सदपह्नव' नामक असत्य भाषण है। भावार्थ-स्वप्नमेंभी जिसका अनुभव आता है वह पदार्थ जागृत अवस्थामें अनुभवमें आया था। इसलिये उसे असत्य नहीं कह सकते । तथा पदार्थ यदि नहीं होते तो आघात, प्रत्याघात आदिक अर्थक्रिया और उससे होनेवाले सुखदुःखादिकोंके अनुभव सबको माननेही पडते हैं, क्योंकि वे वास्तविक हैं । किसी समय हमारा कोई अनुभव मिथ्या हो जानेसे सब प्रकारके अनुभव जैसे मिथ्या मानना अयुक्त हैं वैसेहि कोई पदार्थ असत्य होनेपरभी सब पदार्थ संवृति-असत्य मानना युक्तिके विरुद्ध है ॥ ३९ ॥ (विपरीत नामक असत्य भाषण । )- विपरीत नामका तीसरा असत्य भाषण है। उसका उदाहरण केवली भगवान हमारे समान अन्न सेवन करते हैं, तथा स्त्रीको मोक्ष प्राप्त होता है इत्यादि बाते कहना यह विपरीत नामक तीसरा असत्य भाषण है। ( केवली-कवलाहार और स्त्रीमोक्ष इन विषयोंका ग्रंथकारने स्वयं विस्तारसे आगे खंडन किया है ) अतः यहां इसका केवल नामनिर्देश ग्रंथकारने किया है ॥ ४० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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