SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३.- ३६) सिद्धान्तसार: मन एव मनुष्याणां व्यापारान्कुरुते बहून् । अत एव प्रयत्नेन मनोगुप्तिविधीयते ॥ ३० व्रतानितस्य तिष्ठन्ति तस्य सौख्यं निरन्तरम् । सम्पदो विविधास्तस्य मनो यस्य' हि निश्चलम् ॥३१ प्रमादातिगतो नित्यं संयमानविराधयन् । पश्यन्यो याति सर्वत्र स हीर्यापथगुप्तिमान् ॥ ३२ मुञ्चत्यादाति यो नित्यं वस्तुजातमतन्द्रितः । निरीक्षयन्प्रयत्नेन समितः स मतः सताम् ॥ ३३ अन्नपानविधेः शुद्धि विदधत्स्वीकरोति यः । अन्नपानादिकं तस्य समितिश्चैषणाभिधाः ॥ ३४ इत्थं पञ्चप्रकाराभिर्भावनाभिः प्रभावितम् । अहंसादिव्रतं पूतमनन्तसुखदं भवेत् ॥ ३५ वदन्त्यज्ञानिनो दुष्टं यन्नयापगतं वचः । अनृतं तद्विजानन्ति ऋतवाक्यविचक्षणाः ॥ ३६ ( मनोगुप्ति । ) - मनुष्योंका मनही नानाविध विचार करता है | इसवास्ते प्रयत्नसे गुप्त की जाती है । मनको अपने अधिकार में रखने में महान् प्रयत्न करना पडता हैं। जिसका मन निश्चल है अर्थात् स्वाधीन है उसके व्रत स्थिर होते हैं और उसे निरन्तर सौख्य मिलता है । अनेकविध सम्पदायें भी उसे प्राप्त होती हैं ।। ३०-३१ ।। (५५ ( ईर्यापथपालन । ) - प्रमादका उल्लंघन कर अर्थात् सावधानतासे संयमकी विराधना न करता हुआ जो मुनि अथवा त्यागी गृहस्थ-ऐलक, क्षुल्लक आदि व्रतिक गृहस्थ मार्गकी देखभाल करके हमेशा सर्वत्र गमन करता है वह ईर्यापथ-गुप्तिका धारक समझना चाहिये ।। ३२ ।। ( आदान-निक्षेपण समिति । ) - जो आलस्य - रहित होकर और प्रयत्नसे देखकर हमेशा पिंछी, कमंडलु, शास्त्र आदि वस्तु रखता है अथवा ग्रहण करता है वह समितियुक्त महात्मा सज्जनोंसे पूज्य होता है ।। ३३ ।। ( आलोकित - पानभोजन 1 ) - खानेके पदार्थ रोटी, दालभात, आदि और पीने के पदार्थ जल, दूध आदि इनकी शुद्धि करता हुआ जो उनका स्वीकार करता है उसकी एषणा नामक समिति होती है ॥ ३४ ॥ इस प्रकारसे पांच भावनाओंसे प्रभावयुक्त हुआ यह पवित्र अहिंसाव्रत अनंत सुख देनेवाला होता है ।। ३५ ।। ( असत्यवचनका लक्षण और उसके भेद । ) - जो अज्ञानी लोग हैं, वे पुण्य और पापसंबंधी दुष्ट बचन बोलते हैं । उसको सत्य बोलनेमें चतुर पुरुष अनृतभाषण -असत्य - भाषण समझते हैं । जो भाषण ऋत भाषणसे - सत्य भाषणसे दूर है उसको अनृत कहते हैं। ऐसी अनृत शब्दकी व्युत्पत्ति है । वह अनृतभाषण चार प्रकारका है अर्थात् प्राणियोंसे मनुष्योंसे चार प्रकारका असत्य भाषण बोला जाता है और वह पापरूपी वृक्षका बडा भारी मूल है ।। ३६-३७ ।। १ आ. यस्येह २ आ. वीर्या ३ आ. श्चैषणादिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy