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________________ ५४) सिद्धान्तसारः (३. २१ पापहेतुर्मता हिंसा पापमेव करोति सा।न कोद्रवकणः क्वापि गन्धशालिर्भवेद्' भुवि ॥२१ देवातिथिगुरूणां च कृते या क्रियते बुधैः । हिंसा च हिंस्रदोषस्य फलमाहुस्तदप्यमी ॥२२ प्रेक्षावन्तस्ततो हिंसां हेयतन्त्रमिदं त्रिधा । वर्जयन्ति जिनाधीशशासनाज्ञाप्रयत्नतः॥ २३ अहिंसालक्षणो धर्मः सर्वशर्मकरो नृणाम् । कथं निःसारदेहेन कर्तव्यो न मनीषिभीः ॥ २४ अहिंसव व्रतं पूतमेकमेवेदमुच्चकैः । अपराणि व्रतान्यस्य परिपालनहेतुतः ॥ २५ भवहानिकराः पञ्च भावनाश्चास्य निर्मलाः । भावनीया महाभव्यर्वताराधनतत्परः ॥ २६ मुखेऽनन्तानि मे सन्ति वचांसि विविधान्यपि । इति मत्वा न यो वक्ति वचसो गुप्तिमश्नुते॥२७ कृत्याकृत्यविदो धीराः कृत्याकृत्यपरायणम् । पथ्यं तथ्यं वदन्त्येव वचोगुप्ति समाश्रिताः॥२८ वचोव्यापारजाः सन्ति दोषा हिंसाकरा नृणाम् । वाग्गुप्तिभावनायुक्ते न ते सन्ति कदाचन ॥२९ चाहिये । हिंसा पापका कारण होनेसे वह पापको उत्पन्न करेगीही। कोद्रव धान्यका कण जमीनमें बोनेसे क्या वह सुगंधितशालि धान्यरूप-उत्पन्न होगा ? कदापि नहीं" ।। २०-२१ ॥ देवके लिये अर्थात् देवको संतुष्ट करनेके लिये, अतिथिको तृप्त करनेके लिये और गुरुको प्रसन्न करनेके लिये मूर्खलोगोंसे जो प्राणिवध किया जाता है सुज्ञजन उसे हिंसादोषका फलही समझते हैं ॥ २२ ॥ जिनेश्वरकी शासनाज्ञामें प्रयत्न होनेसे बुद्धिमान लोग हिंसाको हेयकर्म समझकर मन, वचन और कायसे त्यागते हैं ॥ २३ ॥ (अहिंसाका महत्त्व ।)- यह अहिंसालक्षण धर्म मनुष्योंको सर्व प्रकारके सुख देता है, ऐसा समझकर विद्वान् लोगोंसे अपने निःस्सार देहद्वारा यह व्रत क्यों नहीं किया जाता है? बाकीके सत्यादि व्रत इसके परिपालनके लिये होनेसे अहिंसाही बडा पवित्र एकही व्रत है ॥ २४-२५ ॥ (अहिंसाव्रतकी पांच भावनायें।)- इस अहिंसाव्रतकी निर्मल पांच भावनायें संसारहानि करनेवाली हैं। इस व्रतकी आराधना करने में तत्पर महाभव्योंके द्वारा ये भावना चिंतन करने योग्य हैं ॥ २६ ॥ मेरे मुख में अनंत वचन हैं, और नाना प्रकारकेभी हैं ऐसा समझकर जो नहीं बोलता है वह वचनकी गुप्तिको प्राप्त होता है ।। २७ ।।। (वचनगुप्ति)- जो कार्य अकार्यको जानते हैं, और जो धीर हैं वे वचनगुप्तिको प्राप्त होकर हितकर ऐसाही सत्यवचन बोलते हैं । वचन बोलनेकी क्रियासे मनुष्योंकी हिंसा उत्पन्न करनेवाले दोष लगते हैं। परन्तु वाग्गुप्तिकी भावनासे जो विद्वान् व्रतिक हैं उन्हें उन दोषोंका संपर्क नहीं होता ॥ २८-२९॥ १ आ. शालिभवो २ आ. अस्य ३ आ. स च वाग्गुति ४ आ. वाग्गुतिमाश्रिताः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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