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________________ -३. ११) सिद्धान्तसारः घोरान्धकारकूपे या निरये वसति क्रमात् । यच्छत्याराधिता हिंसा नराणां दुःखहेतुका ॥८ हिंसासरित्प्रवाहान्तनिमग्ना येत्र दुधियः । ते पतन्ति भवाम्भोधौ बहुदुःखसमाकुले' ॥९ यानि दुःखानि विद्यन्ते विविधासु च योनिष । तानि सर्वाणि हिंस्रस्य सुलभानि भवान्तरे॥१० शिरश्च्छेदं खरारोपं कुलालकुसुमार्चनम्। हिंसको लभते दुःखमिह लोकेऽपि दारुणम्॥११ सत्ताईस भेद होते हैं । तथा इन सत्ताईस भेदोंसे चार कषायोंको गुना करनेसे एकसौ आठ भेद होते हैं । ये हिंसाके एकसौ आठ भेद मनुष्योंको दुःखदायक होते हैं ॥ ७॥ स्पष्टीकरण- प्रमादयुक्त पुरुषका प्राणिहिंसामें जो प्रयत्न करना उसे संरंभ कहते हैं। हिंसाके साधनोंको प्राप्त करनेको समारंभ कहते हैं और हिंसाकार्य करने में प्रवृत्त होनेको आरंभ कहते हैं । कृत-स्वयं हिंसा करना, कारित-दूसरोंसे हिंसा कराना, अनुमत-हिंसा करनेवालोंको अनुमोदन देना । क्रोध, मान, माया लोभोंको कषाय कहते हैं। क्रोधकृत-काहिंसा-संरंभ, मानकृत-कायहिंसा-संरंभ, मायाकृत-कायहिंसा-संरंभ, लोभकृत-कायहिंसा-संरंभ। क्रोधकारित-काय हिंसा-संरंभ, मानकारित-काहिंसा-संरंभ, मायाकारित-काहिंसा-संरंभ, लोभकारित-काहिंसासंरंभ । क्रोधानुमत-काहिंसा-संरंभ, मानानुमत-कायहिंसा-संरंभ, मायानुमत-काहिंसा-संरंभ, लोभानुमत कायहिंसा-संरंभ । ऐसे कायहिंसा-संरंभके बारह भेद हैं। ऐसेही वचनद्वारा हिंसासंरंभके बारह भेद, तथा मनोहिंसा संरंभके बारह भेद होनेसे छत्तीस भेद संरंभके होते हैं । इस प्रकारसे छत्तीस समारंभके और छत्तीस आरंभके भेद होते हैं । सब मिलकर एकसौ आठ भेद हिंसाके होते हैं । ऐसेही असत्यादिक पापोंकेभी एकसौ आठ, एकसौ आठ भेद होते हैं। इन पापोंके त्यागभी एकसौ आठ, एकसौ आठ प्रकारके होते हैं ॥ ७ ॥ दुःखका हेतु ऐसी हिंसाकी आराधना करनेसे वह हिंसा जहां घोर अंधकारके कुए हैं ऐसे नरकमें मनुष्यको क्रमसे निवास करनेके लिये भेजती है ॥ ८॥ ____ हिंसारूप नदीके प्रवाहके बीचमें जो दुर्बुद्धि पुरुष डूब गए हैं वे अनेक दुःखोंसे भरे हुए संसारसमुद्रमें जाकर गिरते हैं ।। ९ ॥ अनेक योनियोंमें जो दुःख हैं वे सब हिंसा करनेवाले पुरुषको अन्यजन्ममें सुलभतासे प्राप्त होते हैं ॥ १० ॥ इहलोकमेंभी हिंसक मनुष्यको मस्तकच्छेदका दुःख प्राप्त होता है । उसे गधेके ऊपर चढाते हैं, मट्टीके बर्तनोंके टुकडे और पत्थरोंसे मारते हैं ऐसे दुःख उसे प्राप्त होते हैं ॥ ११ ॥ १ आ. समाकुला: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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