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________________ ५०) सिद्धान्तसारः सामायिक तथा छेदोपस्थापनमुदीरितम् । परिहारविशुद्धिःस्याच्चतुर्थ' सूक्ष्मसम्परम् ॥ ३ यथाख्यातं यथाख्यातपदे चानुप्रवेशकम् । चारित्रं त्रितयज्ञानकोविदा निगदन्ति तत् ॥ ४ या च हिंसानृतस्तेयाब्रह्मणस्तु परिग्रहात् । विरतिस्तद्वतं ज्ञेयं कर्तव्यकनिरूपकम् ॥ ५ प्रमत्तयोगतः प्राणिप्राणानां व्यपरोपणम् । हिंसा भवति जीवानां भवदुःखैककारणम् ॥ ६ त्रित्रित्रिभिश्चतुभिश्च संरम्भाद्यैः परस्परम् । अष्टोत्तरशतं हिंसा भेदतो जायते नृणाम् ॥ ७ स्वरूपमें प्रवेश करनेकेलिये कारण है ऐसा अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञानके धारक विद्वान् कहते हैं ।। २-४ ॥ __(व्रतलक्षण ।)- हिंसा, असत्य भाषण, चोरी, मैथुनसेवन और परिग्रहाभिलाष इनसे विरक्त होना व्रत है । मैं इस प्रकारसे यह कार्य करूंगा ऐसा जो मनःसंकल्प उसे व्रत कहते हैं । मैं हिंसासे, असत्य भाषणसे, चोरीसे, मैथुनसे और परिग्रहकी अभिलाषासे-एकदेशसे अथवा पूर्णरूपसे विरक्त होता हूं, ऐसा जो नियम-मनःसंकल्प करना उसे व्रत कहते हैं । अथवा मैं अहिंसाका पालन करूंगा, सत्य वचन कहूंगा, धनस्वामी जो मुझे धन देगा उसे ग्रहण करूंगा, ब्रह्मचर्यका पालन करूंगा और अपरिग्रहत्वका स्वीकार करूंगा, इस प्रकार कर्तव्यकी प्रतिज्ञा करना विध्यात्मक व्रत है ॥ ५ ॥ (हिंसाकी व्याख्या ।)- प्रमत्तयोगसे प्राणियोंके प्राणोंका नाश करना हिंसा है। वह जीवोंको संसारदुःख देने में मुख्यकारण है ॥ ६ ॥ __स्पष्टीकरण- जो प्रमादयुक्त है, कषायसंयुक्त परिणामवाला है उसे प्रमत्त कहते हैं। इन्द्रियोंकी क्रियाओंमें सावधानता न रखता हुआ स्वच्छंदसे प्रवृत्ति करनेवाला जो मनुष्य उसे प्रमत्त कहते हैं । अथवा जिसके मनमें कषाय बढ गये हैं, जो प्राणघातके कारणोंमें तत्पर हुआ है, परंतु अहिंसामें शठतासे प्रवृत्ति दिखाता है, कपटसे अहिंसामें यत्न करता है, परमार्थरूपतासे अहिंसामें प्रयत्न जिसका नहीं है उसे प्रमत्त कहते हैं । अथवा चार विकथा, चार क्रोधादि कषाय, पांच स्पर्शनादि इंद्रियाँ और निद्रा तथा स्नेह ये पंद्रह प्रमाद हैं । इनसे जो युक्त हैं उसे प्रमत्त कहते हैं । ऐसे प्रमत्त पुरुषकी जो मन, वचन और शरीरकी प्रवृत्ति उसे प्रमत्तयोग कहते हैं । इस प्रकारके प्रमत्तयोगसे जो प्राणियोंके इंद्रियादि दश प्राणोंका घात करना-वियोग करना उसे हिंसा कहते हैं । वह संसारदुःखका मुख्य कारण हैं ॥ ६ ॥ (हिंसाके एकसौ आठ भेद ।)- संरंभ, समारंभ और आरंभ इनसे मनवचनकायको गुना करनेसे नौ भेद होते है। फिर इन नौ भेदोंसे कृत, कारित और अनुमोदनको गुना करनेसे १ आ. सूक्ष्मपदप्रदम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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