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________________ ( तृतीयोऽध्यायः ) नमस्कृत्य महावीरमुररीकृतसद्गुणम् । गुणेभ्यो निर्गतं किञ्चिद्वक्ष्ये चारित्रमञ्जसा ॥ १ चर्यते चरणं वापि कर्मकक्षक्षयानलम् । पञ्चधा पञ्चमज्ञाननायकैरुपलक्ष्यते ॥२ ( तृतीय अध्याय ) (महावीर जिनस्तुति ।)- अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तशक्ति आदि अनन्तगुण धारण किये हुए महावीर जिनेश्वरको नमस्कार कर गुणोंसे प्रगट हुए चारित्रको मैं संक्षेपसे कहता हूं ॥१॥ विशेष स्पष्टीकरण-चारित्र-मोहकर्मके क्षयोपशमसे अथवा उपशमसे किंवा क्षयसे जो आचरा जाता है उसे चारित्र कहते हैं । अथवा जो सदाचार पाला जाता है उसे चारित्र कहते हैं। संसारके कारण मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग है । उनका नाश करनेके लिये हुए अथवा ससारक कारण भूत-ज्ञानावरणादि आठ कमाका नाश करनेके लिये उद्यत हुए ज्ञानवान सम्यग्दष्टिके वाचिक, कायिक और मानसिक क्रियाविशेषोंका अभाव होना परमचारित्र है, यथाख्यात-चारित्र है । क्रियाओंका पूर्ण अभाव वीतरागोंमें होता है। उसे यथाख्यातचारित्र कहते है और संयतादिकसे सूक्ष्म सांपरायतक जो क्रियाओंका अभाव होता है, वह कम जादा होता है। पांचवे संयतासंयत गुणस्थानमें कुछ अविरतिरूप क्रियाओंका अभाव होता है अर्थात् वहां देशविरती होती है । इसके अनंतर प्रमत्तसंयतमें अविरतिरूप क्रियाका पूर्ण त्याग होता है। अप्रमत्त गुणस्थानमें प्रमादरूप क्रियाका अभाव होता है, अपूर्वकरण गुणस्थानसे सूक्ष्मसांपरायतक गुणस्थानोंमें कषायरूपी क्रियाओंका अभाव होता है और उपशांतकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली और अयोगकेवलियोंमें योगकाभी अभाव होता है अर्थात् सयोगकेवलि जबतक विहार करते हैं तबतक उपदेशादि क्रियारूप योग रहता है और जब विहार बंद होता है, तब वचनादि क्रिया कम होते होते चौदह गुणस्थानमें योगक्रिया पूर्ण नष्ट होती है। अनंतर उस अयोगकेवलि गुणस्थानके अन्त्यसमयमें परम यथाख्यातचारित्र प्राप्त होकर मोक्षप्राप्ति होती है ॥१॥ जो आचरा जाता है अर्थात् जो सदाचार पालन किया जाता है, वह कर्मवनको नष्ट करनेके लिये अग्निकासा है । इसके पंचम ज्ञानके नायकोंने पांच प्रकार बताये है । वे ये हैं-सामायिक, छेदोपस्थाना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यातचारित्र । जैसा शुद्ध आत्माका स्वरूप आगममें कहा है वैसा यथाख्यात-चारित्रमें प्राप्त होता है। इसलिये यह चारित्र शुद्ध आत्माके १ आ. उपलाल्यते S. S. 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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