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________________ ५२) सिद्धान्तसारः (३. १२ षट्षष्टिस्तु सहस्त्राणां षट्त्रिंशत्षट्शतीयुता' । अन्तर्मुहूर्ततो हिले बालमृत्युः प्रजायते ॥ १२ नरकाग्निर्गतानां च हिंस्राणां दुःखदुःखतः । सिंहव्याघ्रादितिर्यक्षु दुःखं वाचामगोचरम् ॥ १३ काकतालीययोगेन यदि मानुष्यमञ्चति । हिंस्रस्तत्रापि तेनैव दौर्गत्यमभिगच्छति ॥ १४ काणःकुण्टस्तथा भण्टो बधिरो दुर्भगः कुणिः । क्षुद्रः सुदुर्वचा नीचः कुष्ठादिबहुरोगभाक् ॥ १५ सर्वधर्मातिगो नित्यं सर्वपापपरायणः । सर्वद्वन्द्वसमायुक्तः सर्वदुःखखनिः पुमान् ॥ १६ निरयानिर्गतो दुष्टः क्रोधशोकभयाकुलः । हिंसको जायते हिंस्रः कुधमकरतो भुवि ॥ १७ (हिंसक बालमृत्युसे मरता है ।)- जो हिंसक है उसे छयासठ हजार छहसौ छत्तीस बार बालमृत्यु प्राप्त होते हैं । स्पष्टीकरण-विकलेन्द्रियोंमें द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके अस्सीभव, त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके साठ भव, चतरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके चालीस भव और पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके । तथा एकेन्द्रियोंके छयासठ हजार एकसौ बत्तीस भव हिंसकको प्राप्त होते हैं। ये भव मिथ्यात्वसे प्राप्त होते हैं और अन्तर्मुहूर्त में इतने मरण प्राप्त होते हैं। मिथ्यात्वसे प्राप्त होनेवाले मरणको बालमरण कहते हैं । एकेन्द्रियोंके मरणोंका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-स्थूल और सूक्ष्म दोनोंही प्रकारोंके जो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और साधारण और प्रत्येक वनस्पति इस प्रकार संपूर्ण ग्यारह प्रकारके लब्ध्यपर्याप्तकोंमेंसे प्रत्येकके छह हजार बारह मरण होते हैं। भावार्थ-स्थूलपृथ्वी, सूक्ष्मपृथ्वी, स्थूल जल, सूक्ष्म जल, स्थूल वायु, सूक्ष्म वायु, स्थूल अग्नी, सूक्ष्म अग्नि, स्थूल साधारण, सूक्ष्म साधारण, तथा प्रत्येक वनस्पति इन ग्यारह प्रकारके लब्ध्यपर्याप्तकोंमेंसे प्रत्येकके छह हजार बारह मरण होते हैं। इसलिये ११ को ६०१२ से गुना करनेपर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके उत्कृष्ट मरणोंका प्रमाण निकलता है ॥ १२ ॥ (गो. जी. कां. गा. १२२-१२४) हिंस्रजीव नरकमें अतितीव्र दुःख भोगकर बडे कष्टसे वहांसे निकलता है, और सिंह, वाघ आदि पशुओंमें जन्म लेकर वहां वचनातीत दुःखानुभव करता है ॥ १३ ॥ (मनुष्यगतिमेंभी हिंसक दुःखी होता है।)- काकतालीय न्यायसे यदि हिंसकको मनुष्यपर्याय प्राप्त हो गया तो वहांभी दारिद्रयदुःख प्राप्त होता है । तथा वह काना, लंगडा, अंधा, बहरा, कुरूप, लूला, क्षुद्र, अतिशय कर्णकठोर शब्दवाला, नीच और कुष्ठादि अनेक रोगोंसे पीडित होता है । वह सर्व धर्मरहित, हमेशा पापोमें तत्पर, सर्व कलह और संक्लेशोंसे युक्त और सर्व दुःखोंकी खान उत्पन्न होती है ॥ १४-१६ ॥ हिंस्र और दुष्ट प्राणी नरकसे जब निकलता है तब वहांके क्रोध, शोक, भय आदि १ आ. त्रिशतीयुता २ आ. निसृतानां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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