________________
सिद्धान्तसार:
( २. १३०
सामायिकं स्तवश्चेति वन्दना सप्रतिक्रमम् ' । वैनयिकं तथा पूतं कृतिकर्म ततः परम् ॥ १३० दशवेकालिकं तस्मादुत्तराध्ययनं पुनः । कल्पादिव्यवहारं च कल्पाकल्पमकल्पकम् ।। १३१ महाकल्पं ततस्तावत्पुण्डरीकाख्यमुत्तमम् । महादि-पुण्डरीकं तदशीतिगमिति स्फुटम् ॥ १३२ चतुर्दशविधं पूतं प्रकीर्णकमिदं विदुः । नामतो देशना यासु कथञ्चित्कथयामि तत् ॥ १३३ नियतानियतः कालो यतीनां समयः स्मृतः तत्र या समया तत्र भवं सामायिकं विदुः ॥ १३४ चतुविशतितीर्थानां प्रातिहार्यादिवर्णनम् । यत्र तत्कथितं प्राज्ञैश्चतुविशतिसंस्तवम् ॥ १३५ एकैकशो जिनानां च यत्र नामादिकीर्तनम् । वन्दनानामतो ज्ञेयं प्रकीर्णकमनिन्दितम् ॥ १३६ संवत्सरचतुर्मास पक्षाहोरात्रिका पुनः । ईर्यापथोत्तमार्थाश्च प्रतिक्रान्तिस्तु सप्तधा ॥ १३७ कथ्यते यत्र भव्यानां कर्मणः क्षपणक्षमा । प्रतिक्रान्तिप्रकीर्णं तत्साधुवर्गेकसेवितम् ॥ १३८
३४)
सामायिक, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, पवित्र कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तरा - ध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, अशीतिग, इन नामोंके चौदह पवित्र प्रकीर्णक बाह्य श्रुत कहे गये है । इनके उपदेशके लिये कुछ निरूपण में करता हूं ।। १३०-१३३ ॥
( चौदह प्रकीर्णकों का वर्णन ) - सामायिक - यतियों का जो नियत और अनियत काल है उसे समय कहते हैं उसमें जो हुआ है उसको सामायिक कहते हैं । सामायिकके नियतकाल सामायिक और अनियतकाल सामायिक ऐसे दो भेद हैं । स्वाध्यायादिकोंको नियतकाल सामायिक कहते हैं । ईर्यापथादिकोंको अनियतकाल सामायिक कहते हैं ।। १३४ ॥
चतुर्विंशतिसंस्तव - चौबीस तीर्थकरोंके प्रातिहार्यादिकों का वर्णन जिसमें किया है उसको बुद्धिमानोंने चतुर्विंशतिस्तव कहा है। ऋषभादि वर्धमानान्त चौबीस तीर्थ करोंके नाम, लांछन, जन्मसमयके दस गुण, केवलज्ञान होनेपर दश अतिशय, देवकृत चौदह अतिशय, उनका वर्ण, उनकी उंचाई, उनके वंश इत्यादि वर्णन इसमें आता है । प्राज्ञ उसे चतुर्विंशति स्तुति कहते हैं ॥ १३५ ॥
वंदना - एकेक जिनेश्वरके नामादि गुणोंका कीर्तन करना उसे वंदना कहते हैं । यह स्तुत्य प्रकीर्णक हैं ।। १३६ ॥
प्रतिक्रमणके सांवत्सरिक, चातुर्मासिक, पाक्षिक, दैवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक और उत्तमार्थ ऐसे सप्त भेद हैं । यह प्रतिक्रमण भव्योंके कर्मका नाश करनेमें समर्थ हैं। यह प्रतिक्रान्ति नामका प्रतिक्रमण - प्रकीर्णक कीर्तिके अधिपति जिनेश्वरोंने कहा है? गमनादि कार्य करने के समय जो दोष लगते हैं वे मेरे मिथ्या होवे पुनः में नहीं करूंगा ऐसा कहना उसे प्रतिक्रमण कहते हैं ।। १३७-१३८ ।।
१ आ. सप्रतिक्रमा २ आ. था च
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org