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________________ -२. १४७) सिद्धान्तसारः (३५ ज्ञानदर्शनचारित्रतपोविनयसूचकम् । वैनयिकप्रकोणं तत्कोतितं कोतिनायकैः ॥ १३९ दीक्षाग्रहणपूर्वायाः क्रियायाः प्रतिपादनात् । कृतिकर्म मतं तज्ज्ञैः कृतकर्मविनाशकम् ॥१४० द्रुमपुष्पितपूर्वैर्यद्दशभिस्त्वधिकारकैः । सूचकं साधुवृत्तानां दशवकालिकं मतम् ॥ १४१ सहनं हयुपसर्गाणां तत्फलादिनिवेदकम् । उत्तराध्ययनं ध्यानध्येयाधारैरुदीरितम् ॥ १४२ यतिकल्पसमाचारप्रच्यवो चित्तमुत्तमम् । प्ररूपयत्प्रायश्चित्तं तत्कल्पव्यवहारकम् ॥ १४३ कालविशेषमाश्रित्य योग्याचारप्ररूपकम् । यतीनामुदितं तज्ज्ञः कल्पाकल्पप्रकीर्णकम् ॥ १४४ दीक्षाशिक्षादिषट्कालसाधु वृत्तप्ररूपकम् । प्रकीर्णकं प्रकृष्टस्तन्महाकल्पं प्रकल्प्यते ॥ १४५ भवान्तरविशेषस्य हेतुभूतं तपोविधेः । ख्यापकं पुण्डरीकाख्यमसंख्यसुखकारकम् ॥ १४६ सर्वाप्सरोगणानां यज्जन्महेतुप्ररूपकम् । महादिपुण्डरीकं तद्भणितं भणितिप्रियः ॥ १४७ - वैनयिक-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और उपचार ऐसे पांच विनयोंका वर्णन जिसमें है, वह वैनयिक प्रकीर्णक है, उसका कीर्तिनायक मुनिओंने वर्णन किया है ॥ १३९ ॥ कृतिकर्म- दीक्षाग्रहणपूर्वक क्रियाका प्रतिपादन इसमें होनेसे इसका कृतिकर्म यह नाम है । यह कृतिकर्म किये हुए पापकार्योंका नाश करनेवाला है ॥ १४० ।। द्रुमपुष्पित अध्याय जिसके पूर्व में है, ऐसे तेरा अध्यायोंका मुनियोंके आचरणका जो सूचक प्रकीर्णक है उसे दशवकालिक कहते हैं। अनेक उपसर्ग-देवकृत मनुष्यकृत, पशुकृत और अचेतनोपसर्ग ऐसे उपसर्गोंको सहन करना और उसके फल आदिका प्रतिपादक ऐसे प्रकीर्णकको, ध्यान और ध्येयके आधारभूत आचार्योंने उत्तराध्ययन कहा है ।। १४१-१४२ ॥ यतियोंके योग्य आचरणको कल्प्य कहते हैं। उसका वर्णन करनेवाला तथा उस आचरणसे भ्रष्ट होनेपर उससे उत्तम प्रायश्चित्त कहनेवाला जो प्रकीर्णक उसे उसके ज्ञाता विद्वान् कल्प्यव्यवहार कहते हैं । १४३ ॥ विशेष कालके आश्रयसे मुनियोंके योग्य आचारोंका प्रतिपादन करनेवाले प्रकीर्णकको कल्प्याकल्प्य प्रकीर्णक कहते हैं। दीक्षा काल, शिक्षाकाल, गणपोषण काल, आत्म-संस्कार काल, भावना काल और उत्तमार्थ काल ऐसे षट्कालसंबंधी मुनियोंके आचरणको निरूपण करनेवाले प्रकीर्णकको श्रेष्ठोंने महाकल्प्य कहा है ॥ १४४-१४५ ॥ ____ अन्यजन्मविशेषके अर्थात् भवनवासी, व्यन्तरादि देवजन्मविशेषके कारणभूत तपश्चरणका वर्णन करनेवाले प्रकीर्णकको पुण्डरीक कहते हैं, यह असंख्य सुखको देनेवाला है ।। १४६ ।। सर्व अप्सरासमूहकी उत्पत्ति कैसी होती है इसका निरूपण करनेवाला जो प्रकीर्णक उसे व्याख्यान-प्रिय आचार्योंने महापुण्डरीक कहा है ॥ १४७ ॥ ......................... १ आ. कारणम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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