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________________ -२. १२९) सिद्धान्तसारः (३३ विंशतिविशतिर्यावत्प्राभूतान्यत्र' कोविदाः । वस्तु वस्तु प्रतिवादो निगदन्त्यधिकप्रभाः ॥११८ शतद्वयं तदेवास्मादशीतिसहितं ततः । शतं षष्टियुतं गीतं त्रिशती षष्टिसंयुता ॥ ११९ द्विशती द्विशती पश्चाच्चत्वारिंशत्समन्विता । तथा विशतिसंयुक्तं शतत्रयमुदीरितम् ॥ १२० चत्वारिंशच्छतान्यस्मात्षट्शतानि ततःपरम् । शतत्रयं च सर्वेषु द्विशती द्विशती पुनः॥ १२१ कोटीनां च शतं पूतं तथा द्वादश कोटयः। लक्षास्त्र्यशीतिपञ्चाशत्सहस्रा चाष्टभिः सह ॥१२२ पदानि पंच चैवेदं द्वादशाङ्गं श्रुतं सताम् । वन्द्यं वन्देऽहमप्युच्चस्तस्य लब्धिवशीकृतः ॥ १२३ पदं च त्रिविधं ज्ञेयं सर्वश्रुतनिबन्धनम् । अर्थमध्यप्रमाणादिभेदतो भिन्नकल्मषैः ॥ १२४ अर्थ्यमर्थसमाप्तिश्च प्रमाणं चाष्टभिः पदम् । अक्षरैरक्षराख्यानं कथितं तथ्यवेदिभिः ॥ १२५ अङ्ग श्रुतपदं चैतन्मध्यमं मध्यभागतः । तस्य वर्णाश्च विज्ञेया मानतो मानशालिभिः ॥ १२६ शतं षोडश कोटीनां चतुस्त्रिशच्च लक्षकाः। अशीतिस्त्र्यधिकाः सप्त सहस्राःशतमष्टकम् ॥१२७ अष्टाशीतिश्च सद्वर्णा मध्यमस्येह मध्यमाः । पदस्याङ्गप्रविष्टस्य श्रुतस्य गदिता जिनः ॥१२८ अङ्गप्रविष्टमाख्याय ख्यापितं यद्यतीश्वरैः। अङ्गबाह्यं श्रुतं सभ्यङनिगदन्ति गदातिगाः ॥१२९ ( सर्व प्राभृतसंख्या )- अधिक कान्ति जिनकी है ऐसे गणधरादि महापुरुष प्रत्येक वस्तुमें वीस वीस प्राभृत हैं ऐसा कहते हैं ।। ११८ ॥ ___ दोसौ, दोसौ अस्सी, एकसौ साठ, तीनसौ साठ, दोसौ चालीस, दोसौ चालीस, तीनसौ बीस, चारसौ, छहसौ, तीनसौ, दोसौ, दोसौ, दोसौ, दोसौ सब मिलकर प्राभृतसंख्या १९५ वस्तुओंमें ३९०० सौ होती है ॥ ११९-१२१ ॥ (द्वादशांगोंकी पदसंख्या )- एकसौ बारह कोटि, तिरासी लक्ष, अट्ठावन हजार, पांच इतनी द्वादशांगोंकी पदसंख्या है। यह द्वादशांगश्रुतज्ञान विद्वन्मान्य है । उसकी प्राप्तिके वश होकर मैं इस वन्द्य श्रुतज्ञानको अत्यादरसे वन्दन करता हूं ॥ १२२-१२३ ॥ ( पदभेदोंका वर्णन ) जिन्होंने पापविनाश किया है ऐसे जिनेश्वरोंने पदके तीन भेद कहे हैं । अर्थपद, मध्यपद और प्रमाणपद । ये तीनों पद सर्व श्रुतज्ञानके कारण हैं। जिससे अर्थसमाप्ति होती है उसे अर्थपद कहते है जैसे सफेद गौको रस्सीसे बांधो, अग्निको लाओ, ये अर्थपद हैं । आठ आदि अक्षरोंसे जो उत्पन्न होता है उसे प्रमाणपद कहते हैं। अर्थात् प्रमाणयुक्त अक्षर जिसमें हैं उसको सत्य जाननेवाले विद्वान प्रमाणपद कहते हैं । अंगश्रुतके पदको मध्यपद कहते हैं, क्यों कि प्रमाणपद और अर्थपदके बीच में इसकी गणना की है । ज्ञानशाली विद्वान उनके वर्गों की संख्या ऐसी समझते हैं-सोलह सौ चौतीस कोटि, तिरासी लक्ष, सात हजार, आठसौ अठ्यासी इतने वर्ण एक मध्यम पदमें रहते हैं। इस प्रकार जिनेश्वरने अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञानके पदके अक्षर कहे हैं । १२४-१२८ ॥ ( अंगबाह्य श्रुतज्ञानके भेद )- यहां तक यतीश्वरोंने अंगप्रविष्टका वर्णन करके खुलासा किया है। संसाररोगसे रहित जिनेश्वर अंगबाह्य श्रुतज्ञानका सम्यङ निरूपण करते हैं ।। १२९॥ १ आ. स्तावत् २ आ. प्रायो ३ आ. निगदामि गदातिग: S.S. 5. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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