SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२) सिद्धान्तसारः (२. २४ उक्तावग्रहमाख्याति यदुक्ते सत्यवग्रहः । प्रजायते पदार्थस्य कर्मणां प्रशमक्षयात् ॥ २४ कालान्तरे पदार्थस्य यथार्थग्रहणं ध्रुवम् । अरुवस्तु भवेत्सोऽयमयथार्थावभासनम् ॥ २५ ईहादयोऽपि विज्ञेया बव्हादिक्रमभेदतः । प्रत्येकं द्वादश प्रास्त्रयस्त्रुटितफल्मषैः ॥ २६ प्रत्येकं द्वादशाप्येते करणैर्मनसा हताः । सप्ततिद्वधिका तेषामेकैकं प्रति जायते ॥ २७ अष्टाशीत्यधिकं तावच्छतद्वयमुदीरितम् । तन्मतिज्ञानमर्थस्यावग्रहादिविशेषितम् ॥ २८ ( उक्तावग्रह, ध्रुवाग्रह, और अध्रुवावग्रहोंका वर्णन )- शब्दद्वारा कहनेपर जो पदार्थका प्रथम ज्ञान होता है उसे उक्तावग्रह कहते हैं। पदार्थका यथार्थ (जितना था उतनाही) अवभासन होना अर्थात् कम-जादा न होना ध्रुवावग्रह है। पदार्थका यथार्थ अवभासन न होना अर्थात् कम जादा अवभास होना अध्रुवावग्रह है । भावार्थ-बहु बहुविधादिक अवग्रह मतिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम अधिक होता है तब होते हैं, और मंद क्षयोपशम होनेसे एकावग्रह, एकविधावग्रह, अक्षिप्रावग्रह, आदि अवग्रह होते हैं । ध्रुवावग्रह और धारणामें क्या अन्तर है ? क्षयोपशमकी प्राप्तिके समयमें परिणामोंकी निर्मलता सतत होनेसे प्राप्त हुए क्षयोपशमसे पहिले समयमें जैसा अवग्रह हुआ है वैसाही बार बार द्वितीयादिसमयोंमें होता रहता है । वह न्यून नही होता है और अधिकभी नहीं होता है ऐसे अवग्रहको ध्रुवावग्रह कहते हैं और जब विशुद्ध परिणाम और संक्लेश परिणामोंका मिश्रण होता है तब जो मतिज्ञानावरणका क्षयोपशम होता है उससे उत्पन्न हवा अवग्रह कभी बहत पदार्थोंका होता है तो कभी अल्पोंका होता है. कभी कभी बहुविधोंका और कभी एकविधोंका होता है ऐसा न्यूनाधिकभाव होनेसे अध्रुवावग्रह होता है। तथा धारणासे जाना गया पदार्थ कालान्तरमें भी विस्मृत नहीं होता है उसकी याद रहती है उस अविस्मृतिके कारण ज्ञानको धारणा कहते हैं। ऐसे अवग्रहके भेदोंका वर्णन किया है ॥२४-२५॥ ( ईहादिकोंका बव्हादिक्रमसे भेद प्रतिपादन )- जिनका पाप नष्ट हुवा है ऐसे विद्वानोंके द्वारा ईहा, अवाय और धारणाके बारह बारह भेद जानने योग्य हैं । बहुईहा, बहुविधईहा, क्षिप्रेहा, अक्षिप्रेहा इत्यादिरूपसे बारह भेद होते हैं । बहुअवाय, बहुविधावाय, क्षिप्रावाय इत्यादि बारह भेद अवायके होते हैं । तथा धारणाके बहुधारणा, बहुविधधारणा, क्षिप्रधारणा, अक्षिप्रधारणा आदि धारणाकेभी बारह भेद होते हैं । स्पर्शनादिक पांच इंद्रियाँ और मन इनसे गुणित करनेपर अवग्रहादिकोंके बहत्तर बहत्तर भेद होते हैं । स्पर्शनावग्रहके बारह भेदके समान रसनेन्द्रियावग्रहके बारह भेद होते हैं। घ्राणावग्रह, चक्षुरिन्द्रियावग्रह और कर्णावग्रहकेभी बारह बारह भेद मिलकर साठ भेद इन्द्रियावग्रहोंके होते हैं। इनमें मनोवग्रहके बारह भेद मिलानेसे अवग्रहोंके बहत्तर भेद होते हैं । ईहाके, अवायके और धारणाकेभी पांच इंद्रियाँ और मनसे गुणित करनेपर बहत्तर प्रकारकी ईहा, बहत्तर प्रकारका अवाय और बहत्तर प्रकारकी धारणा होती है। सब मिलकर दोसौ अठठ्यासी भेद मतिज्ञानके अर्थ अवग्रहादि विशेषोंसे होते हैं ऐसा जिनेश्वरने कहा है ॥ २६-२७-२८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy