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-२. ३५ )
सिद्धान्तसारः
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व्यञ्जनं व्यञ्जितं प्राज्ञैरव्यक्तं शब्दसम्भवम् । तस्यावग्रह एवास्ति न परे त्वविशेषतः॥ २९ चक्षुर्मनो विना तावदिद्रियैर्गुणितश्च सन् । स द्वादशविकल्पोऽपि बव्हादिभिरितीरितः ॥ ३० अष्टाधिका भवेत्तावच्चत्वारिंशत्समासतः । व्यञ्जनावग्रहस्येति षट्त्रिंशत्रिशताधिकम् ॥३१ मतिज्ञानस्य ये भेदा गदिता भेदकोविदः । ते सर्वे भव्यजीवस्य जायन्ते नापरस्य च ॥ ३२ अर्थव्यञ्जनभेदेन सत्पदार्थावबोधकम् । इन्द्रियानिन्द्रियोत्पन्नं तन्मतिज्ञानमीरितम् ॥ ३३ ऋद्धिबुद्धिप्रवृद्धं च प्रवृद्धजनपूजितम् । क्वचिदासन्नभव्यस्य स्यात्तदावरणक्षयात् ॥ ३४] सा कोष्ठबीजसंभिन्नश्रोतृपादानुसारिणी। ऋद्धिबुद्धिर्भवेत्तस्य सद्वृद्धः कारणं परा ॥ ३५
___जिनको अठारह प्रकारकी बुद्धि-ऋद्धि प्राप्त हुई है, ऐसे गणधरदेवोंने अव्यक्त शब्दादिकोंसे उत्पन्न हुआ जो अव्यक्त अवग्रहज्ञान उसको व्यञ्जनावग्रह कहा है। स्पर्शनेन्द्रिय रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय और कर्णेन्द्रियसे जो अस्पष्टावग्रह होता है वह बव्हादिक पदार्थोंकी अपेक्षासे बारह बारह प्रकारका होता है । अतः उपर्युक्त चार इन्द्रियोंसे अस्पष्ट अवग्रहके अडतालीस भेद होते हैं । दोसौ अठासी भेदोंमें ये व्यंजनावग्रहके अडतालीस भेद मिलानेपर मतिज्ञानके तीनसौ छत्तीस भेद होते हैं।
भावार्थ- जैसे मट्टीके नये घडेपर पानीके दो तीन बिंदु डालनेपर वह घडा गीला नहीं होता है, पुनः पुनः सिंचित करनेपर गीला हो जाता है । इस प्रकार कान, नाक, स्पर्शन और जिव्हा ऐसे चार इन्द्रियोंसे शब्दादि-परिणत पुद्गल दो तीन आदि समयोंमें जब ग्रहण किये जाते हैं तब व्यक्त नहीं होते है । पुनः पुनः अवग्रह होनेपर वे व्यक्त होते हैं। इसलिये व्यक्तग्रहणके पूर्वमें व्यंजनावग्रह है और व्यक्तग्रहण होनेपर अर्थावग्रह है। अव्यक्तग्रहण होनेपर उसके ईहा, अवाय और धारणा नहीं होते हैं । यह व्यंजनावग्रह चक्षु और मनको छोडकर शेष चार इन्द्रियोंद्वारा होता है ॥ २९-३०-३१ ॥
भेद जाननेवालोंने मतिज्ञानके जो भेद कहे हैं वे सब भव्य जीवको सम्यग्दृष्टिको होते हैं मिथ्यादृष्टिको नहीं होते हैं । अर्थावग्रह, व्यंजनावग्रह आदि भेदोंसे युक्त और जीवाजीवादि पदार्थोंका ज्ञान करानेवाली इन्द्रियां और मनसे उत्पन्न हआ जो ज्ञान वह मतिज्ञान है ऐसा मुनिश्वरोंने कहा है ॥ ३२-३३ ॥ (अनृद्धि-मतिज्ञानका वर्णन समाप्त ।).
( बुद्धिऋद्धिरूपमतिज्ञानका वर्णन ) - कभी कभी आसन भव्यजीवको बुद्धिऋद्धि प्राप्त होनेसे वृद्धिंगत हुआ और वृद्ध-ज्ञानी मुनीश्वरोंके द्वारा पूजा गया ऐसा मतिज्ञान प्राप्त होता है । वह उसके आवरणके तीव्र क्षयोपशमसे प्राप्त होता है ॥ ३४ ॥
यह ऋद्धियुक्तबुद्धि, कोष्टबुद्धि, बीजबुद्धि, संभिन्नश्रोतृबुद्धि और पादानुसारिणीबुद्धि इसप्रकार चार प्रकारकी है । यह किसी आसन्न भव्यको होती है । यह उत्तम वृद्धिका उत्तम कारण है ॥ ३४-३५ ॥
१ आ. प्रमाणत:
२ आ. भव्ये
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