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________________ -२. २३ ) सिद्धान्तसारः बहूनां ग्रहणं यत्र समानां' सममिणाम् । प्रक्षयोपशमादेष बव्हवग्रह इष्यते ॥ १६ एकस्यैव पदार्थस्य बहूनां न कदाचन । ग्रहादवग्रहः प्राज्ञेरबहुः परिकीर्तितः ॥ १७ प्रकारैविविधैर्यत्र सदर्थग्रहणं भवेत् । असौ बहुविधो ज्ञेयोऽवग्रहो गेहवजितैः ॥ १८ एकेनैव प्रकारेण यत्रार्थावग्रहो भवेत् । एकप्रकारमाख्यान्ति मुनयस्तमवग्रहम् ॥ १९ ज्ञानावरणवीर्यस्य क्षयोपशमसंभवात् । शीघमर्थग्रहो यत्र स क्षिप्रावग्रहाभिधः ॥ २० चिरकालेन यश्चार्थ गृण्हाति बहुदुःखतः । स चिरावग्रहोऽभाणि सुचिरन्तनपौरुषः ॥ २१ उन्मोलत्पुग्दलद्रव्यं गृह्यतेऽसकलं यतः । अवनहं गृहातीता गृणन्ति तमनिःसृतम् ॥ २२ तद्विपक्षं क्षमावन्तो निःसृतावग्रहं विदुः । अभिप्रायवशाद्गृण्हन्ननुक्तः पुनरुच्यते ॥ २३ ग्रह, एक प्रकारावग्रह, अक्षिप्रावग्रह, उक्तावग्रह, निःसृतावग्रह और अध्रुवावग्रह ऐसे छह भेद हैं। दोनों मिलकर अवग्रह-मतिज्ञानके बारह भेद होते हैं ।। १५ ।। ( बहुअवग्रह और एकावग्रह )- समानधर्मवाले अनेक पदार्थोंका ग्रहण जिसमें होता है वह बहुअवग्रह है। इसके विरुद्ध एकावग्रह है अर्थात् एक पदार्थकाही जो अवग्रह होता है अनेकोंका कदापि नहीं होता है उसे एकावग्रह कहते हैं । विद्वान् लोग इसे अबहु अवग्रहभी कहते है ॥ १६-१७ ॥ ( बहुविधावग्रह और एकविधावग्रह )- अनेक प्रकारोंके, अनेक धर्मोंके, अनेक पदार्थोंका अनेक प्रकारोंसे जहां अवग्रह होता है उसे गृहत्यागीमुनि बहुविधावग्रह कहते हैं। जहां एक प्रकारके अनेक पदार्थोंका अवग्रहज्ञान होता है उसे मुनि एकप्रकारावग्रह कहते हैं ॥ १८-१९ ।। ( क्षिप्रावग्रह और अक्षिप्रावग्रह )- अवग्रहमतिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम और वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम होनेसे पदार्थको शीघ्र जानना क्षिप्रावग्रह है, और चिरकालसे बहुत कष्टसे जो पदार्थोंका अवग्रहज्ञान होता है उसे अक्षिप्रावग्रह कहते है। ऐसा पुरातन पुरुषोंनेगणधरादि देवोंने कहा है ।। २०-२१ ।। ( अनिःसृतावग्रह और निःसतावग्रह )- पानी आदिकमेंसे किचित् ऊपर आया हुवा असकल पुद्गल देखकर संपूर्ण पदार्थका ज्ञान होना अनिःसृतावग्रह है । अर्थात् एक वस्तुका कुछ अंश देखकर इतर अंशोंसहित संपूर्ण पदार्थका ज्ञान होना अनिःसृतावग्रह है। ऐसे गृहत्यागी मुनि कहते हैं। इसके विरूद्ध अवग्रहको क्षमावान्मुनि निःसृतावग्रह कहते हैं । अभिप्रायसे जानना वह अनुक्तावग्रह कहा जाता है ॥ २२-२३ ॥ १ आ. समानासम. २ आ. सोऽयं ३ आ. पूरुषः ४ आ. भावस्य ५ आ. नात्. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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