________________
-१. ६४)
सिद्धान्तसार:
( ११
ज्ञानचारित्रयोराद्यं तन्मूलत्वात्तयोर्द्वयोः । दर्शनं दर्शनाधारा निगदन्ति गदातिगाः ॥ ५९ तस्याणुव्रतनामापि विद्यते न कदाचन । दृग्विशुद्धिर्न यस्यास्ति किं पुनस्तन्महाव्रतम् ॥ ६० तप्तोऽपि तीव्रतपसा ग्लप्तदेहः प्रतिक्षणम् । दर्शनेन विशुद्धात्मा नरो वेद्यस्य वेदकः ॥ ६१ पदार्थानखिलांल्लोके यथार्थान्नैव पश्यति । कुदृष्टिरत एवादौ दृग्विशुद्धिविधीयते ॥ ६२ न दर्शनसमं किञ्चिद्विद्यतेऽपि जगत्रये । यस्य स्पर्शनमात्रेण संसृति हन्ति मानवः ॥ ६३ दृष्टि विना गति पूतां गच्छतोऽप्यतियत्नतः । चरित्रेऽप्यस्खलद्वृत्तेरधःपातो भवेद्ध्रुवम् ॥ ६४
प्राप्ति होती है तथा मोक्षप्राप्तिके लिये जो कारण है वह सम्यग्दर्शन क्या दुर्लभ नहीं है ? अर्थात् सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होना दुर्लभ है । प्राप्त होनेपर यदि वह नहीं छूटेगा तो जीवको अवश्य मोक्षप्राप्ति कर देता है ॥ ५८ ॥
ज्ञान और चारित्रके आदिमें सम्यग्दर्शन है क्यों कि वह उन दोनोंका मूल है । अर्थात् ज्ञान और चारित्रको सम्यग्दर्शनसेही समीचीनपना प्राप्त होता है । जब सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है उसी समय ज्ञानको और चारित्रको सम्यक्पना आजाता है संसाररोगको उल्लंघन करनेवाले, सम्यग्दर्शनको आधारभूत ऐसे गणधरादिक मुनीश ऐसा कहते हैं ॥ ५९॥
सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिसे रहित अर्थात् मूढता, मद, अनायतन, और शंकादिकोंसे मलिन हुए भव्योंको नाममात्र भी अणुव्रत नहीं फिर महाव्रत कैसे प्राप्त होगा ? अर्थात् सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि हिंसादि पापोंका एकदेश त्याग अथवा संपूर्ण त्याग होता है अन्यथा नहीं ॥ ६० ॥ (तपसेभी सम्यग्दर्शनकी श्रेष्ठता ) तीव्र तपसे तप्त होनेसे जिसका देह क्षीण हुआ है ऐसा मुनिराज जब सम्यग्दर्शनसे निर्मल होता है तब उसे आत्माका अनुभव आता है । अर्थात् सम्यग्दर्शनसेही आत्मानुभूति होती है तपसे नहीं । अकेला तप शरीरको क्षीण करेगा परंतु वह आत्माको आत्मानंदसे वंचित रखता है अतः सम्यग्दर्शन तपसे श्रेष्ठ है ।। ६१ ।।
मिथ्यात्व के उदयसे कुदृष्टिको कारणविपर्यास, स्वरूपविपर्यास, तथा भेदाभेदादि - विपर्यास होते हैं जिनसे वह संपूर्ण पदार्थोंका यथार्थ स्वरूप नहीं जान सकता है । इस लिये दर्शनविशुद्धि प्रथम कही है । तात्पर्य - दर्शनविशुद्धि से स्याद्वाददृष्टि उदित होती है जिससे भव्यात्मा आत्मानुभव के साथ वस्तुओंकी कथंचित् नित्यानित्यात्मकता जान सकता है ॥ ६२ ॥
इस जगत्रयमें सम्यक्त्व के समान कोई अमूल्य पदार्थ नहीं है, क्यों कि इसको धारण करने से मनुष्य संसारनाश करता है । तात्पर्य - सम्यग्दर्शन प्राप्त होकर नष्ट होनेपरभी मनुष्य दीर्घ संसारवाला रहता नहीं । क्यों कि उसका संसार अर्धपुद्गलपरिवर्तन कालतक रहता है, अनंतर वह मुक्त होता है । और यदि सम्यक्त्व नष्ट नहीं हुआ तो वह पुरुष थोडे भव धारण कर मुक्त होता है ।। ६३॥
सम्यग्दर्शन के विना देव गति प्राप्त होनेपरभी तथा चारित्रमें अतिप्रयत्नसे अप्रतिहत प्रवृत्ति करनेपर भी निश्चयसे मुक्त होता नहीं । तात्पर्य - सम्यक्त्वरहित जीव चारित्र के बलसे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org