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सिद्धान्तसारः
( १. – ६५
प्राणिनः संसृतेर्दुःखमनन्तमनतिक्रमम् । न क्रामन्ति क्रियायुक्ता अपि दर्शनवर्जिताः ॥ ६५ ज्ञानं सच्चरणं वापि येनोज्झितमनिन्दितम् । अज्ञानमचरित्रं च भववृद्धिकरं भवेत् ॥ ६६ दर्शनं परमो धर्मो दर्शनं शर्म निर्मलम् । दर्शनं भव्यजीवानां निर्वृतेः कारणं परम् ॥ ६७ शासनं जिननाथस्य भवदुःखैकनाशनम् । यस्याधिवासनामेति स कृती कृतिनां वरः ॥ ६८ सद्रत्नमिदमत्युद्धं हृदये गुणसंयुतम् । यो दधाति श्रियो रामाः स्वत एव श्रयन्ति तम् ॥ ६९ धर्मे धर्मफले शास्त्रे साधौ संगविवर्जिते । निश्चलो योऽनुरागोऽयं संवेगः स निगद्यते ॥ ७० माद्यन्मित्रकलत्राद्याः सर्वे संयोगसंभवाः । मुक्त्वा रत्नत्रयं पूतमिति निर्वेदमादिशेत् ॥ ७१
१२)
नवमग्रैवेयकतक जाता है परंतु वह भवसमुद्रमें भ्रमण करता है । सम्यग्दर्शनके साथ अप्रतिहत चारित्र पालनेवाले मुनिराज सर्वार्थसिद्धिमें जाकर दूसरे भवमें मुक्त भी होते हैं ॥ ६४ ॥
जो जीव सम्यग्दर्शनरहित हैं वे कितना भी घोर चारित्र पालें, तथापि जिसका उल्लंघन-नाश करना शक्य नहीं है ऐसे अनंत सांसारिक दुःखोंका पार वे नहीं लगा सकते । तात्पर्यसम्यग्दर्शन नावके समान है उसका आश्रय छोडकर जो केवल चारित्र ही पालता है वह मुक्त नहीं होता । जैसे नौकाका आश्रय छोडकर आजतक समुद्रके दूसरे किनारेको अपने बाहुओंके द्वारा कोई भी नहीं जा सका ।। ६५ ॥
( सम्यक्त्वरहित ज्ञान तथा चारित्र, अज्ञान और अचारित्र है ) सम्यग्दर्शनसे रहित ज्ञान और निर्मल चारित्र प्रशंसायुक्त होनेपर भी अज्ञान और अचारित्र होते हैं, तथा संसारवर्धक होते हैं ॥ ६६ ॥
इस लिये सम्यग्दर्शन परम - उत्कृष्ट धर्म है । सम्यग्दर्शनही निर्मल सुख है । तथा वह भव्य जीवोंकी मुक्तिका उत्तम कारण है ।। ६७ ।।
संसार दुःखोंका मुख्यतया अन्त करनेवाला यह जिनेश्वरका शासन जिसके हृदयमें रहता है वह विद्वद्गणमें श्रेष्ठ है । जिसके मनमें एकवार सम्यग्दर्शनकी वासना उत्पन्न होती है वह नर सर्वजनोंमें श्रेष्ठ होता है ऐसा समझना चाहिये ॥ ६८ ॥
निःशंकादिक अष्टगुणोंसे युक्त यह सम्यग्दर्शन एक उत्कृष्ट रत्न है । इसे जिसने अपने हृदय में धारण किया है उसके पास चक्रवर्ति आदि सर्व प्रकारकी लक्ष्मी प्राप्त होती है ।। ६९॥ (संवेगका लक्षण ) रत्नत्रयरूप धर्म, अभ्युदयनिश्रेयसादि प्राप्तिरूप धर्मफल, जिनेश्वर कथित तथा गणधरादि-प्रणीत शास्त्र, परिग्रहरहित रत्नत्रयाराधक मुनिवर्ग इनमें जो स्थिर अनुराग उत्पन्न होता है उसे संवेग कहते हैं ।। ७० ।।
( निर्वेगका लक्षण ) रत्नत्रयरहित पुरुषको उन्मत्त मित्र, पुत्र, और स्त्री आदिक सर्व सामग्री मिथ्या कर्मके संयोगसे प्राप्त होती है । सिर्फ रत्नत्रयही आत्माका स्वभाव हैं ऐसा चिन्तन निर्वेगका लक्षण हैं ।। ७१ ।।
( निन्दाका लक्षण ) जब आत्मा कषायसे व्याकुल होता हैं तब वह सज्जननिन्द्य कार्य करता हैं । परंतु जब कषायका वेग कम होता हैं तब मैंने अयोग्य कार्य किया हैं ऐसा जो मनमें अनु
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