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सिद्धान्तसारः
(१. २८
लब्धपञ्चेन्द्रियो जीवस्तथा कालादिलब्धिकः । भव्यश्च लभते साक्षाद्दर्शनं' न तथा परः॥ ५७ कल्याणपञ्चकं यस्माल्लभ्यते क्षणतोऽपि सत् । सिद्धौ निदानभूतं तु दर्शनं किं न दुर्लभम् ॥५८
उपर्युक्त सात प्रकृतियोंका क्षय होनेसे उत्तम क्षायिकसम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। इसका कभी भी नाश नहीं होनेसे यह साद्यनन्त है। औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन साधनभूत हैं । अर्थात् इनकी उत्पत्ति नहीं होगी तो क्षायिक सम्यग्दर्शन कदापि नहीं होगा। प्रथमतः संसारीजीवोंको औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है । तदनंतर क्षायोपशमिक होता है । इसके अनंतर क्षायिक होता है । क्षायिककी उत्पत्तिमें ये दोनो सम्यक्त्व साधन हैं और क्षायिक सम्यक्त्व साध्यरूप है ।। ५५-५६ ॥
(सम्यग्दर्शन किस जीवको उत्पन्न होता है ? ) जिसको स्पर्शनादि पांच इंद्रियोंकी प्राप्ति हुई है तथा जिसे कालादिलब्धियां प्राप्त हुई हैं, ऐसे भव्यको साक्षाद्दर्शन प्रगट होता है । पंचेन्द्रियां और कालादिलब्धियां नहीं प्राप्त होनेपर भी भव्यता रहती है । तथापि वह अकेली सम्यग्दर्शनको प्रगट नहीं कर सकती। ( विशेष स्पष्टीकरण-अनादि मिथ्यादृष्टि जीवको सम्यग्दर्शनकी प्रतिबंधक प्रकृतियोंका उपशम कालादिलब्धियां प्राप्त होनेसे होता है। कर्मोंसे घिरी हुई भव्य आत्मा अर्धपुद्गलपरिवर्तन-अवशिष्ट रहनेपर प्रथमसम्यक्त्वकाल प्राप्ति-योग्य होती है। पुद्गलपरिवर्तनके कर्मद्रव्य पुद्गलपरिवर्तन तथा नोकर्मद्रव्यपुद्गलपरिवर्तन ऐसे दो भेद हैं। उनमेसे किसी एककोभी अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन काल कहते हैं। जिसका संसारमें रहनेका काल इससे अधिक होगा उसे सम्यग्दर्शन नहीं होता। यह प्रथम काललब्धि है । )
२ कर्मस्थितिकाललब्धि-जीवमें जब कर्म उत्कृष्ट स्थितिके अथवा जघन्यस्थितिके होते हैं तब उसको प्रथम सम्यक्त्व नहीं होता अर्थात् जिस जीवमें बध्यमान कर्मसमूह विशुद्ध परिणामोंसे अन्तःकोटिकोटिसागरोपमप्रमाणवाला होता है तथा पूर्वबद्ध कर्म जिसमेंसे संख्यात सागरोपमसहस्र कम होकर अन्तःकोटिकोटीकी स्थितिमें आता है उसको उपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेकी योग्यता प्राप्त होती है ।
३ भावापेक्षासे उसको काललब्धि अर्थात् भव्यता, पंचेन्द्रियपना, पर्याप्तकता, प्राप्त हुई है ऐसे सर्व विशुद्ध जीवको सम्यग्दर्शन होता है । इतरोंको नहीं । सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिमें जातिस्मरण, गुरूपदेश, वेदनानुभवादिक अनेक कारण पडते है ।। ५७ ॥
जिस सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिसे क्षणमें अन्तर्मुहूर्तमें त्रिलोकवन्द्यकल्याणपंचककी प्राप्ति होती है अर्थात् तीर्थकरपदका बंध होनेसे गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्ष ऐसी पंचकल्याणोंकी
१ आ. पुण्याद्दर्शनं न परो नरः २ आ. लभते.
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