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________________ -१. ४९) सिद्धान्तसारः पृथिवीं ज्वलनं तोयं देहलीं पिप्पलादिकम् । देवतात्वेन मन्यन्ते ये ते चिन्त्या विपश्चिता ॥ ४३ पाखण्डिनः प्रपञ्चाढ्यान्मिथ्या चार विहारिणः । रण्डाश्चण्डाश्च मन्यन्ते गुरूंश्च गुरुमोहिनः ॥४४ हिंसाद्यारम्भकत्वेन सर्वसत्त्वदयाभयावहान् । समयान्मन्यते मूढः सत्यं स समयेष्विह ॥ ४५ यं यं दुष्टमदुष्टं वा पुरः पश्यति मानवम् । तं तं नमति मूढात्मा मद्यपायीव निस्त्रपः ॥ ४६ एकेनैव हि मौढयेन जीवोऽनन्तभवो भवेत् । अपरस्य द्वयस्येह फलं किमिति संशयः ॥ ४७ ज्ञानं कुलं बलं पूजां जातिमैश्वर्यमेव च । तपो वपुः समाश्रित्याहङ्कारो मद इष्यते ॥ ४८ ॥ शङ्काकाक्षान्यदृष्टीनां प्रशंसा संस्तवस्तथा । विचिकित्सेति ये दोषास्तेऽपि वर्ज्याः सुदृष्टिभिः ॥४९ न) पानी, देहली, पीपल आदिकोंको देव समझते हैं । इनका विचार विद्वान् करें अर्थात कुदेव तथा सुदेवादिकोंका स्वरूपभेद जानकर अपना सम्यग्दर्शन निर्मल रखें ।। ४२-४३ ।। ( गुरुमूढता ) गुरुके स्वरूपको न जाननेवाले पुरुष मिथ्याचारित्रधारियोंको गुरु समझते हैं । जटाजूट रखना, पंचाग्नितप करना, नदीमें स्नान करना इत्यादिक मिथ्याचार हैं । मिथ्यात्वी गुरु हिंसा तथा आरंभोमें तत्पर रहते हैं । विधवा स्त्रीको रण्डा कहते हैं तथा जिनके परिणाम क्रूर, हिंसामय होते हैं, जो यज्ञमें पशुवधका उपदेश देते हैं, उनको चण्ड कहते हैं, ऐसे लोगोंको गुरु समझना गुरुमूढता है ।। ४४ ।। ( समयमूढता ) जिनमें हिंसादिक आरंभोंका वर्णन होनेसे जो सम्पूर्ण प्राणियोंको भय उत्पन्न करते हैं, ऐसे शास्त्रोंको जो मानते हैं और उनकी श्रद्धाको आदरणीय समझते हैं, वह समयमूढता है । मद्यपायी के समान निर्लज्ज्ज और मूढ मनुष्य अपने आगे आये हुए जिस किसी मनुष्यको देखता है, वह दुष्ट हो चाहे अदुष्ट, उसको वंदन करता है ॥ ४५-४६ ।। 1 एक मूढताहीसे यह जीव अनन्त संसारमें घूमनेवाला होता है फिर अन्य दो मूढताओंका फल क्या मिलेगा ऐसा मनमे संशय उत्पन्न होता है ॥ ४७ ॥ ( आठ प्रकारके मद) ज्ञान, पितृवंश, शक्ति, मातृवंश, धनधान्यादिक संपत्ति, लोगों से प्राप्त होनेवाली मान्यता, तप और शरीर-सौंदर्य, इनके आश्रयसे जो अहंकार उत्पन्न होता है उसे गर्व कहते है (ऐसे गर्वसे धार्मिक लोगों का अनादर करनेसे सम्यग्दर्शन मलिन होता है ) ॥ ४८ ॥ ( शङ्कादिक दोष) शंका, कांक्षा, अन्य मिथ्यादृष्टियोंकी प्रशंसा, संस्तव, तथा विचिकित्सा ये दोष भी सम्यग्दृष्टियोंसे त्याज्य हैं । देव, गुरु और शास्त्रोंका जो सत्यस्वरूप है वह ही है या अन्यथा है ऐसा मनमें जो संशय उसे शंका कहते हैं । कांक्षा- जो कर्मपरवश है, नाशशील है, जिसके बीच में दुःखकी उत्पत्ति है ऐसे पापकारण सुखमें अभिलाषा होना कांक्षा है । विचिकित्सा - स्वभावतः अपवित्र परंतु रत्नत्रयसे पवित्र ऐसे धार्मिकोंके शरीरकी ग्लानि करना उनके गुणों में प्रेम न करना विचिकित्सा है। अन्यदृष्टिप्रशंसा - मिथ्यादृष्टियोंके ज्ञान और चारित्रको मनमें अच्छा समझना । अन्यदृष्टिसंस्तव - मिथ्यादृष्टियोंके विद्यमान अविद्यमान गुणोंकी वचनसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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