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सिद्धान्तसारः
( १. ३६—
श्री जिनेन्द्रवचोऽनेकरचनारुचिरं महत् । आगमो' गमको गम्यः सतामानन्ददायकः ।। ३६ बाह्याभ्यन्तरभेदेन निर्ग्रन्थं ग्रन्थसंयुतम् । कर्मणा ? लघुमप्युच्चैर्गुरुं हि गुरवो विदुः ॥ ३७ षोढानायतनं मूढत्रयं शङ्कादिकाष्टकम् । मदाष्टकममी दुष्टा दोषाः सद्दर्शनोज्झिताः ॥ ३८ मिथ्यादर्शन विज्ञानचारित्रत्रितयं तथा । तद्वन्तः पुरुषाः प्राज्ञैरनायतनमीरितम् ॥ ३९ कामक्रोधमहालोभमानमायाविनोदनान् ' । देवान्दैत्यादिदुर्वृत्तान्मन्यते मूढदृष्टिकः ॥ ४० वीतरागं सरागं च निर्ग्रन्थं ग्रन्थसंयुतम् । सगुणं निर्गुणं चापि समं पश्यन्ति दुधियः ॥ ४१ मूढात्मानो न जानन्ति को वन्द्यो वन्दकश्च कः । गूथयूथाशनां नो चेद्वन्दन्ते गां कथं नराः ॥ ४२
( आगमलक्षण ) जिसको गणधरादि यति जानते हैं, जो सज्जनोंको आनन्द देता है, जो अनेक रचनाओंसे सुन्दर और महान् है ऐसे जिनेन्द्रवचनको आगम कहते है । वह भव्योंको जीवादि-वस्तुओं का स्वरूप दिखलाता है ॥ ३६ ॥
( गुरुका लक्षण ) धनधान्यादिक दश प्रकारके बाह्य परिग्रह तथा क्रोधादिक अन्तरंग चौदह परिग्रहोंके त्यागी, अर्थात् निर्ग्रन्थ, तथा जो ग्रन्थसे - शास्त्र से युक्त हैं अर्थात् स्वपरमतके ज्ञाता है, जो कर्मभार नष्ट होनेसे लघु हुए हैं अर्थात् मोहकर्म, ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय कर्मोंका क्षयोपशम होनेसे सम्यग्ज्ञानादि गुणोंसे जो भारी हुए हैं- उच्च हुए हैं, उनको गणधरदेव गुरु कहते हैं || ३७ ॥
(सम्यग्दर्शनके दोष ) छह अनायतन, तीन मूढतायें, शंकादिक आठ दोष, और आठ गर्व ये सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष हैं। क्योंकि ये सम्यग्दर्शनको मलिन करते हैं ॥ ३८ ॥
( अनायतनस्वरूप ) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान तथा मिथ्याचारित्र ये तीन तथा इनके धारक अर्थात् मिथ्यादृष्टि पुरुष, मिथ्याज्ञानी पुरुष, तथा मिथ्याचारित्रवाला तपस्वी, इन छहों को विद्वानोंने अनायतन कहा है । ये छह वस्तुयें सम्यग्दर्शनके आयतन - आश्रयस्थान नहीं हैं, क्योंकि इनके संसर्गसे सम्यग्दर्शन मलिन होता है ॥ ३९ ॥
( कुदेवस्वरूप ) जिसकी दृष्टि- श्रद्धा मूढ हो गई है ऐसा विवेकहीन पुरुष जिनमें काम, क्रोध, महालोभ, गर्व, कपट और विनोद, हास्य, रति आदिक दोष हैं ऐसे दुराचारी दैत्यादिकोंको देव समझता है । ऐसी श्रद्धासे सम्यग्दर्शन मलिन होता है ॥ ४० ॥
विवेकहीन पुरुष वीत्तराग जिनदेवको तथा सराग हरिहरादिकोंको, बाह्याभ्यन्तर परिग्रहरहित जैनगुरुको और परिग्रहधारी मिथ्यात्वी गुरुको, गुणसहित तथा गुणरहित पुरुषोंको समान देखते हैं ॥ ४१ ॥
मूर्खपुरुष वन्दने योग्य कौन हैं और अवन्द्य कौन हैं इनका भेद नहीं जानते । यदि उनको भेदज्ञान होता तो विष्टा भक्षण करनेवाली गौको वे कैसा वन्दन करते ? ये मूढ लोग पृथ्वी, अग्नि,
१ आ. आगमो गम्यगमकः २ आ. कर्मणो ३ आ. घनान् । ४ आ. देव्यादिदुवित्तान्..
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