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-१. ३५)
सिद्धान्तसारः
वैभवं सकलं लोके सुलभं भवतिनाम् । तत्त्वार्थशिनां दृष्ट्वा गुरूणां दुर्लभं वचः ॥ २६ अज्ञानान्धतमस्तोमविद्ध्वस्ताशेषदर्शनाः । भव्याः पश्यन्ति सूक्ष्मार्थान्गुरुभानुवचोंऽशुभिः ॥ २७ मिथ्यादर्शनविज्ञानसन्निपातनिपीडनात् । गुरुवाक्यप्रयोगेण सर्वे मुञ्चन्ति मानवाः ॥ २८ । संसारार्णवमग्नानां कर्मयादोऽभिभाविनाम् । भविनां भव्यचित्तानां तरण्डं गुरवो मताः ॥ २९ भववाद्धि तितीर्षन्ति सदगुरुभ्यो विनापि ये । जिजीविषन्ति ते मूढा नन्वायुःकर्मजिताः ॥ ३० अन्तर्मुहर्तकालेऽपि विविधासु च योनिषु । भमन्ति भविनो नित्यं गुरुवाक्यविमोचिनः ॥ ३१ सर्वशास्त्रविदो धीराः सर्वसत्त्वहितंकराः । रागद्वेषविनिर्मुक्ता गुरवो गरिमान्विताः ॥ ३२ सदृष्टिज्ञानसद्वृत्तरत्नत्रितयनायकैः । कथितः परमो धर्मः कर्मकक्षक्षयानलः ॥ ३३ श्रद्धानं शुद्धवृत्तीनां देवतागमलिङिगनाम् । मौढ्यादिदोषनिर्मुक्तं दृष्टि दृष्टिविदो विदुः ॥ ३४ अष्टादशमहादोषविमुक्तं मुक्तिवल्लभम् । ज्ञानात्मपरमज्योतिर्देवं वन्दे जिनेश्वरम् ॥ ३५
जीवोंको इस जगतमें संपूर्ण वैभव सुलभतासे प्राप्त होता है । अज्ञानरूप अंधःकारसमूहसे वस्तुओंको अवलोकन करनेकी जिनकी शक्ति नष्ट हुई है ऐसे भव्य जीव गुरुरूपी सूर्यके वचनकिरणोंसे सूक्ष्म पदार्थोंको देखते हैं। गुरूपदेशके प्रयोगसे सर्व मनुष्य मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानरूपी सन्निपातज्वरकी पीडासे मुक्त हो जाते हैं। संसारसमुद्रमें डूबे हुए, तथा कर्मरूपी मगर मत्स्यादिकोंसे पीडित हए भव्यजीव जं
कि भव्यचित्त-रत्नत्रयप्राप्ति योग्य मनके धारक हैं उन्हें गरु नौकाके समान संसार-तारक होते हैं । २५-२९॥
सद्गुरुके विनाभी जो संसारसमुद्रसे तैर जानेकी इच्छा करते हैं वे मूढ जीव आयुकर्मसे रहित होकर भी जीनेकी इच्छा करते हैं। जिन्होंने गुरूपदेशका उल्लंघन किया है वे लोग अन्तर्मुहूर्त कालमेंभी सतत अनेक योनियोंमें क्षुद्रभव धारण कर भ्रमण करते हैं। ( वे क्षुद्रभव छ्यासठहजार तीनसौ छत्तीस होते हैं ) ॥ ३०-३१॥
वे सद्गुरु सर्वशास्त्रोंके ज्ञाता, धीर, सर्व प्राणियोंको हितका उपाय कहनेवाले, रागद्वेषरहित, तथा सत्य, अहिंसा, शील आदि गुणोंके गौरवको धारण करते हैं ॥ ३२ ॥
- (परमधर्म) रत्नत्रयधारी सद्गुरूओंने सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रात्मक उत्तम धर्म कहा है जो कि कर्मवनको दग्ध करनेके लिये अग्नि के समान है ॥ ३३ ॥
( सम्यग्दर्शनका स्वरूप ) सम्यग्दर्शनके ज्ञाता शुद्धस्वभावको धारण करनेवाले जिनदेव, उन्होंने कहा हुआ आगम-शास्त्र और शुद्ध आचारणवाले गुरु इन विषयमें लोकमूढतादि-दोषोंसे रहित श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं ।। ३४ ॥
( देवका स्वरूप ) जो क्षुधा, प्यास, वृद्धावस्था, रोग आदि अठारह दोषोंसे सर्वथारहित, जो कर्मोंका नाश कर मुक्तिपति हुए हैं, जो सर्वोत्कृष्ट, अप्रतिहत केवलज्ञानरूप प्रकाशके धारक हैं ऐसे जिनेश्वर परमार्थ ( सच्चे ) देव हैं, उनको मैं वंदन करता हूं ॥ ३५ ।।
१ आ. दिष्ट्वा .
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