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सिद्धान्तसार:
( १. १६
तं परीक्ष्यात्र गृह्णन्ति प्रेक्षावन्तः प्रयत्नतः । वञ्चनाभयतो रत्नं यथा रत्नपरीक्षकः ॥ १६ अधर्मोऽपि मतो धर्मो मत्यज्ञानादिदोषतः । अत एव परीक्ष्येमं न गृह्णन्ति महाधियः ॥ १७ हेयोपादेयबुद्धीनां सतामानन्दवर्तनाम् । न पारम्पर्यतो धर्मः प्रमाणं जातु जायते ॥ १८ कुलायातमपि त्याज्यमवद्यमतिनिन्दितम् । मूर्खापवादमात्रोक्त दोषोऽनन्तगुणा गुणाः ॥ १९ धर्मे धर्मफले राग द्वेष (रागं द्वेषं) स्तदितरे महान् । यः करोति नरः प्राज्ञः सफलं तस्य 'जीवनम् ॥२० सर्वसौख्याकरं सम्यगैश्वर्यमविनिन्दितम् । लब्ध्वा सन्तस्त्यजन्त्येव कुलदौः स्थित्यमञ्जसा ॥ २१ कुलजो कुलजो वापि धर्मो ग्राह्यः सतां मतः । न च पक्षवशादेष लभ्यते केनचित्क्वचित् ॥ २२ कुलायातं महाकुष्ठं सर्वाङ्गानां विनाशकम् । नीरोगत्वं समासाद्य त्यज्यते कि न धीमता ॥ २३ कुलधर्मरता दोना विचारातिगता भुवि । के के न दुर्गति प्राप्ता यशोधरनृपादयः ॥ २४ गुरूणां गुरुबुद्धीनां निःस्पृहाणामनेनसाम् । विचारचतुरैर्वाक्यैः सोऽपि संगृह्यते बुधैः ॥ २५
( परीक्षापूर्वक धर्म - ग्रहण) जैसे रत्नपरीक्षक वञ्चनाकी भीतिसे परीक्षा करके रत्नग्रहण करते हैं वैसेही बुद्धिमान् लोक धर्मकी परीक्षा कर प्रयत्नसे उसे ग्रहण करते हैं । कुमति, कुश्रुत और विभंगावधि ज्ञानके द्वारा लोग अधर्मको भी धर्म समझते हैं । इसलिये महाबुद्धिमान् लोग अधर्मकी परीक्षा कर उसे छोड देते हैं । ग्राह्याग्राका निर्णय करनेवाले लोग कुलपरंपरासें चले आये धर्मको आँख मीचकर कभीभी ग्रहण नहीं करते हैं । उसे प्रमाण नहीं मानते हैं । कुलपरंपरासे जो अतिशय निन्द्य द्यूतादिक पाप चले आये हैं उनको छोडनाही चाहिये । और मूर्खके अपवाद वचनकाही जिसमें दोष है ऐसा अनन्त गुणवाला धर्म नहीं छोडना चाहिये ।। १६-१९ ॥
( विवेकी जीवन सफल ) जो धर्ममें तथा धर्मसे प्राप्त सुखादिक फलों में प्रीति रखता है तथा अधर्म और उसके फलको त्याज्य समझता है वह पुरुष प्राज्ञ - विवेकी समझना चाहिये उसका जीवनही सफल है ॥ २० ॥
( अप्रमाण कुलधर्मकी हेयता ) सर्व प्रकारके सुख देनेवाला वैभव प्राप्त होनेपर सज्जन कुलपरंपरासे चले आये दारिद्यको शीघ्र ही छोडते हैं । सज्जन जो धर्म मानते हैं वह कुलपरंपरासे प्राप्त हो या न हो उसे ग्रहण करना चाहिये। ऐसा प्रशंसनीय धर्म किसी दुष्पक्षवश • होने से कही नहीं मिलेगा । आरोग्य प्राप्त होनेपर आनुवंशिक तथा हाथ पांव आदिक अवयवोंको गलानेवाले महाकुष्ठरोगको क्या विद्वान् नहीं छोडेंगे ? तात्पर्य- कुलपरंपरासे आया हुआ अधर्म भी कुष्ठरोगके समान छोडनाही चाहिये । कुलधर्मका पालन करनेवाले, दीन, विचारहीन ऐसे यशोधर राजा आदि कितनेही लोग दुर्गतिको प्राप्त हुए ।। २१-२४ ॥
( गुरु कैसे हो ? ) जो निःस्पृह और पापरहित हैं, और जो हेयादेय समझनेवाली विशाल बुद्धिके धारक हैं, ऐसे गुरुओं के विचारचतुर उपदेशोंसे बुधजन धर्मको - आत्महितकर धर्मको ग्रहण करते हैं । सत्यपदार्थ स्वरूप जाननेवाले गुरुओंका दुर्लभ उपदेश सुननेवाले संसारी
१ आ. एवा. २. आ. मात्रोत्र दोष:.
३ आ. जीवितम्.
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