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________________ सिद्धान्तसारः (१. ५० एतैर्दोविनिर्मुक्तं श्रद्धानं तत्त्वगोचरम् । दर्शनं दर्शनीयाश्च कथयन्ति यतीश्वराः॥५० निसर्गाधिगमाभ्यां च तद्वेधा कथितं जिनः । उपशमादिभेदेन पुनस्त्रेधोपलभ्यते॥५१ प्रागुपात्तेन भावेन स्वात्मन्यात्मात्मना पुनः । स्वभावं लभते शुद्धं दर्शनं तन्निसर्गजम् ॥ ५२ यत्प्रमाणनयैरन्तःप्रस्फुरञ्ज्योतिरुज्ज्वलम् । सम्यक्त्वं लभते जीवोऽधिगमात्तन्निगद्यते ॥ ५३ ..................... स्तुति करना । इन दोषोंसे रहित ऐसी जो तत्त्वविषयक श्रद्धा उसे दर्शनीय अर्थात् गुणसुंदर और शरीरसुंदर ऐसे मुनिनाथ गणधर सम्यग्दर्शन कहते हैं ॥ ४९-५० ॥ (सम्यग्दर्शनके दो और तीन भेद) जिनदेवोंने सम्यग्दर्शन निसर्ग-सम्यग्दर्शन और अधिगमसम्यग्दर्शन ऐसा दो प्रकारका कहा है। पुनः वह उपशमादिभेदसे तीन प्रकारका उपलब्ध होता है । अर्थात् उसके औपशमिक सम्यग्दर्शन, क्षायिक सम्यग्दर्शन, तथा क्षायोपशमिक सम्यदर्शन ऐसे तीन भेदभी होते हैं । ॥५१॥ (निसर्ग सम्यग्दर्शन) यह आत्मा अपने आत्मामें अपने आत्माके द्वारा जो पूर्वभवमें ग्रहण किये हुए भावसे अपना शुद्ध दर्शन स्वभाव प्राप्त करता है उसे निसर्ग सम्यग्दर्शन कहते हैं ॥ ५२॥ (विशेषार्थ) दर्शनमोहकी मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, तथा सम्यक्मिथ्यात्व ये तीन प्रकृतियां और चारित्रमोहकी अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ मिलकर सात प्रकृतियोंके उपशमादि होनेपर परोपदेशके विना आत्माकाही आत्मामें आत्माके द्वारा जो श्रद्धान होता है उसे निसर्गसम्यक्त्व कहते हैं। ___ इस निसर्गसम्यक्त्वमें गुरुका उपदेश कारण पडता है परंतु उपदेश देने में गुरुको प्रयत्न नहीं करना पडता है । क्योंकि जिसमें सम्यक्त्व उत्पन्न होनेवाला है उसे पूर्वभव सुनना, वेदनाका अनुभव, धर्मश्रवण, जिनप्रतिमाका अवलोकन, महामहोत्सव देखना, महद्धि प्राप्त आचार्योकी वन्दना इत्यादि कारणोंसे मनःखेदके बिना जीवादिक-पदार्थोमें यथार्थ श्रद्धा प्राप्त होती है। परंतु अन्तरंग कारण दर्शनमोहादि सप्तप्रकृतियोंके उपशमादिक यदि नहीं हो तो उपर्युक्त बाह्य कारण मिलनेपरभी वह प्राप्त नहीं होगा ॥ ( य. ति. चं. ६ आश्वास ) (अधिगमजसम्यग्दर्शन) गुरुसे प्रमाण-नयद्वारा जीवादि पदार्थोंका कहा गया स्वरूप सुनकर जो जीव उसका मनन-चिन्तन करता है, तब उसके मनमें वृद्धिंगत होनेवाली उज्ज्वल ज्योति अर्थात् सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है । गुरूपदेशपूर्वक होनेसे उसे अधिगमसम्यक्त्व कहते हैं ।। ५३ ।। . १ आ. वेधोपलाल्यते. २ आ.सुभावं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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