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________________ -१२. ८७) सिद्धान्तसारः (२९३ वह्निर्दहति संस्पर्शाद्दुर्जनो दर्शनादपि । कथं वह्निसमं निन्द्यं कथयन्ति महाधियः॥ ७९ सर्पा व्याघ्रा गजाः सिंहाः वश्या जगति धीमताम् । तेषामपि न ते दुष्टा दुर्जना वशवर्तिनः ॥ ८० भवन्ति दवदग्धा ये फलिताः पुष्पिताः पुनः । दुष्टदावाग्निदग्धानां प्ररोहोऽपि न दृश्यते ॥८१ मन्त्रतन्त्रप्रयोगेण कालदष्टोऽपि जीवति । दुष्टसर्पप्रदष्टा ये न ते जीवन्ति जातुचित् ॥ ८२ भिषग्वरविधानेन गदादपगतो नरः । दुष्टवाक्यविकाराणां चिकित्सापि न विद्यते ॥ ८३ यदि वाग्देवता जैनी प्रसादं कुरुते नरः । गुणान्दोषांश्च शक्नोति वक्तुं सदसतोरिह ॥ ८४ दुष्षमाकालयोगेऽस्मिज्ञानवानिति गवितः। यास्यात्सोऽस्तु सतां मध्ये सोऽहं मूर्योऽस्मि केवलम्॥ पुरा जाताः केचित्सकलभुवनाभासिमतयः । ततस्त्रिज्ञानाढयाः कति कतिचनाङ्गेषु निपुणाः ॥ इदानी ते देशादपि लवलवाबँकचतुराः । चरन्तो मन्यन्ते त्रिभुवनपाण्डित्यमहह ॥ ८७ अग्नि स्पर्शसे आदमीको जलाता है परंतु दुर्जन दर्शनसेही मनुष्यको जलाता है। महाबुद्धिमान् पुरुष उस निंद्य दुष्टको क्या अग्निसमान समझते हैं ? अर्थात् अग्निसेभी दुर्जनअधिक दुःखदायक है ।। ७९ ॥ सर्प, वाघ, हाथी, सिंह ये जगतमें बुद्धिमानोंके वश होते हैं परंतु दुष्ट दुर्जन उनकेभी ( बुद्धिमानोंकेभी) वश नहीं होते हैं । ८० ॥ जो वृक्ष अग्निसे दग्ध हुए हैं वे पुनः पुष्पित और फलोंसे लद जाते हैं परंतु दुर्जनरूपदावाग्निसे जले हुए पुरुष तो भस्मही हो जाते हैं, उनका अंकुरभी दुष्टिगोचर नहीं होता। कृष्णसर्पसे डसा हुआ मनुष्य मंत्रप्रयोगसे तथा तंत्रप्रयोगसे पुनः जीवित होता है परंतु जो दुर्जनरूप सर्पसे डसे हुए हैं वे कदापि नहीं जीयेंगे ॥ ८१-८२ ॥ उत्तम वैद्यके इलाजसे मनुष्य रोगसे रहित होता है परंतु दुष्टोंका उपदेश सुनकर जिसमें विकृति पैदा हुई है उसके लिये चिकित्सा नहीं है अर्थात् दुष्ट उपदेशसे बिगडा हुआ मनुष्य सज्जन नहीं होता है ।। ८३ ॥ __ यदि जिनेश्वरके मुखसे उत्पन्न हुई सरस्वती देवता प्रसाद देगी अर्थात् जिसके ऊपर प्रसन्न होगी वह मनुष्य सज्जन दुर्जनोंके गुण और दोषोंका विवेचन करनेमें समर्थ होगा ॥८४॥ (पंचमकालका दोष । )- पंचमकालका संयोग प्राप्त कर ज्ञानवान मनुष्य सज्जनोंके समूहमें अतिगर्वयुक्त होता है लेकिन मैं तो वास्तविक मूर्ख हूं ॥ ८५ ॥ पूर्वकालमें चतुर्थकालमें संपूर्ण जगतको प्रकाशित करनेवाली मति जिनकी थी ऐसे महापुरुष अर्थात् केवली भगवान होते थे। तदनंतर मति श्रुत और अवधिज्ञानके धारक हुए तदनंतर कुछ कुछ अंगोंमें निपुण ऐसे आचार्य हुए। अब उन अंगकाभी कुछ भागका भाग और उसकाभी आधा भाग जानने में चतुर ऐसे लोक इस जगतमें हैं इतना तुच्छज्ञान होनेपरभी वे संपूर्ण त्रैलोक्यको अपने सामने अपण्डितोंसे भरा हुआ समझ रहे हैं ॥ ८६-८७ ॥ १ आ. नरे २ आ. दुःखमा ३ आ. मान्यः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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