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________________ २९४) सिद्धान्तसारः (१२. ८८ ग्रन्थकर्तुः प्रशस्तिपद्यानि। श्रीवर्धमानस्य जिनस्य जातो मेदार्यनामा दशमो गणेशः। श्रीपूर्णतल्लान्तिकदेशसंस्थो यत्राभवत्स्वर्गसमा धरित्री ॥ कल्पोर्वीरुहतुल्याश्च हारकेयूरमण्डिताः। जाता झाटा ( लाटा ) स्ततो जातः संघोऽसौ झाट ( लाट ) बागडः ॥ ८८ श्रीधर्मसेनोऽजनि तत्र संघे दिगम्बरः श्वेततरैर्गुणः स्वः। व्याख्यासु दन्तांशुभिरुल्लसद्धिर्वस्त्रावृतो वा प्रतिभासते स्म॥ भजवादीन्द्रमानं पुरि पुरि नितरां प्राप्नुवन्नुद्घमानम् । तन्वशास्त्रार्थदानं कृतिरुचिरुचिरं सर्वथा घ्नन्निदानम् ॥ ८९ विद्यादर्शोपमानं दिशि दिशि विकिरन्स्वं यशो योऽसमानम् । तस्माच्छीशान्तिषेणः समजनि सुगुरुः पापधूलोसमीरः॥ यत्रास्पदं विदधती परमागमश्रीरात्मन्यमन्यत सतीत्वमिदं विचित्रम् । वृद्धा च संततमनेकजनोपभोग्या श्रीगोपसेनगुरुराविरभूत्स तस्मात् ॥ ९० ( कवि प्रशस्ति मेदार्य गणधर । )- श्रीवर्धमान जिनेश्वरके मेदार्य नामक दसवे गणधर हुए। उनका देह लक्ष्मीसे पूर्ण और उत्तम सामुद्रिक चिह्नोंसे युक्त था। वे प्रभु मेदार्य जहाँ हुए वह भूमि स्वर्गके समान थी। ( लाट और लाटबागड संघ। )- वहां हार-केयूर-भूषणोंसे मंडित कल्पवृक्षके समान लाट हुए और उनसे लाट बागड संघ उत्पन्न हुआ ॥ ८८ ।। (श्रीधर्मसेन मुनिराज।)- उस लाट बागड संघमें श्रीधर्मसेन नामक दिगम्बर मुनि उत्पन्न हुए। वे जब आगमकी व्याख्याओंका प्रतिपादन करते थे उस समय वे अपने अतिशय शुभ्र गुणोंसे तथा चमकनेवाले दन्तकिरणोंसे मानो वस्त्रसे आच्छादित हुएसे दीखते थे। ( शान्तिषेण गुरु । )- प्रत्येक नगरमें वादियोंके इन्द्रोंका अर्थात् अन्यमतीय महाविद्वानोंका मान तोडनेवाले, ग्रंथरचनाकी कांतिसे संदर ऐसे शास्त्रार्थके सारको सर्वत्र फैलानेवाले, निदान शल्यको नष्ट करनेवाले, सरस्वतीका मानो निर्मल दर्पण है ऐसा अपना अनुपम यश परमार्थतया सर्व दिशाओंमें फैलानेवाले ऐसे शान्तिषेण मुनि धर्मसेन यतिसे उत्पन्न हुए हैं। जो कि पापरूपी धूलीको उडानेमें वायुके समान थे और सद्गुरु थे। ( गोपसेन गुरु।)- इस शान्तिषेण मुनिराजमें वसनेवाली परमागमरूम लक्ष्मी वृद्ध होकरभी हमेशा अनेक जनोंसे उपभोगी जाती थी, तथापि वह अपनेको पतिव्रता समझती थी यह बडा आश्चर्य है। परिहार-शान्तिषेण मुनिमें परमागमका ज्ञान अतिशय बढ गया था। वे अपना आगमज्ञान अनेक लोगोंको देते थे, उनका वह ज्ञान पवित्र था, ऐसे शान्तिषेण गुरुसे गोपसेन नामक गुरु-आचार्य उत्पन्न हुए हैं ।। ८९-९० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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