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सिद्धान्तसारः
( १२.७१
एवमागमतः ' सर्वं ज्ञातव्यं तत्त्ववेदिभिः । न ह्यत्रावगतं किञ्चिद्यतः सारं प्रगृह्यते ॥ ७१ अत्र युक्तमयुक्तं वा मयाज्ञानेन भाषितम् । सन्तः संशोध्य शृण्वन्तु सौजन्यमिति ? संश्रिताः ॥७२ सत्यं मधुरमाख्यान्ति मृतादिरसं बुधाः । परं सुजनवाक्यस्य माधुर्यमपरं कियत् ॥ ७३ अनध्यं मणिनैर्मल्यं जडस्यापि भवेदिह । अजाड्यस्वच्छवृत्तीन सौजन्येन कथं सताम् ॥ ७४ ये सन्तः सर्वदा सन्ति साधवः शुभसंयुताः । ते साधर्म्यं समालोक्य हृष्यन्ति न गुणैर्मम ॥ ७५ सन्तः श्रीजिनराद्धान्तनामतोऽप्यतिवत्सलाः । भवन्ति किं पुनर्यत्र किञ्चिच्चित्रं निशम्यते ॥७६ तु दुर्जनभावेन भवन्ति भविनो भुवि । ते च सर्वे ' स्वभावेन दूषयन्ति दुराशयाः ॥ ७७ विषाद्दुःखमवाप्नोति सत्यं प्राणी सुदुःसहम् । दुर्जनादाप्तदुःखस्यानन्तभागो न तत्पुनः ॥ ७८
तत्त्वोंके ज्ञाताओंको आगमसे सर्व जानना योग्य है। मेरे पास ऐसा कुछ विशेष ज्ञान नहीं जहांसे आप बुद्धिमान पुरुष सारग्रहण करेंगे ॥ ७१ ॥
( ग्रंथकारकी नम्रता । ) - इस सिद्धान्तसारसंग्रह ग्रंथ में अज्ञानी ऐसे मुझसे जो कुछ युक्तियुक्त अथवा अयुक्त कहा गया हो उसे सौजन्यबुद्धिका आश्रय करनेवाले सज्जन संशोधन करके सुने । अर्थात् यह ग्रंथ युक्तियुक्त हैं या अयुक्त है इसका निर्णय करें । दोषोंको त्यागकर गुणग्रहण करें || ७२ ॥
( सज्जनोंके वचन अमृतके समान हैं । ) - बुध - विद्वज्जन अमृतादिके समान जिसका रस है - स्वाद है ऐसा मधुर सत्य भाषण बोलते हैं । सज्जनोंका भाषण अत्यंत मधुर है ऐसा हम कहते हैं । इससे अधिक हमसे क्या कहा जा सकता है ।। ७३ ।।
जिनमें जाड्य - मूर्खता - अज्ञान नहीं है तथा जिनकी मनोवृत्ति निर्मल - निष्कपट है ऐसे सज्जनोंकी सज्जनता से जो जड - अचेतन है ऐसे रत्नकी निर्मलता क्या अनर्घ्य - अमूल्य - श्रेष्ठ हो सकती है ? कदापि नहीं ॥ ७४ ॥
जो सज्जन सर्वदा शुभविचारोंसेयुक्त ऐसे साधुस्वभावको धारण करते हैं वे यहभी हमारे समान हैं ऐसा समझकर हर्षित होते हैं । परंतु इसमें मेरा कुछ गुण कारण नहीं है । अर्थात् उनकाही सज्जनता गुण होने से वे हर्षित होते हैं ।। ७५ ।।
सज्जनगण श्रीजिनसिद्धान्तके नामसेभी अतिशय आल्हादित होते हैं । इसमें क्या आश्चर्य है ? ।। ७६ ।।
( दुर्जनोंका स्वभाव । ) - जो प्राणी इस जगतमें दुष्टोंका स्वभाव धारणकर उत्पन्न होते है वे सब अपने दुरभिप्रायसे स्वाभाविकतया सबको बिगाडनेका प्रयत्न करते हैं ।। ७७ ।। प्राणी विषसे सुदुःसह दुःखको प्राप्त होते हैं, यह बात सत्य है । परंतु दुर्जनके संगसे दुःख होता है उसका व अनन्तवां भाग है अर्थात् दुर्जनसंगका दुःख विषसे उत्पन्न होनेवाले दुःख अनंतगुणित अधिक है ॥ ७८ ॥
जो
२ आ. अधिसंश्रितः
१ आ. शेषः
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३ आ. सर्व
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