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________________ -१२. ७०) सिद्धान्तसारः (२९१ हृद्यास्वादनिमित्तं' यो मन्त्रतन्त्रादितत्परः । आभियोगिकनिन्द्यायां भावनायां स जायते ॥६६ अनुबद्धमहारोषो बद्धवैरः सविग्रहः । सुतीव्रतपसा युक्तोऽप्यासुरीभावनावहः ॥ ६७ ।। अप्रपन्नं जिनेन्द्रेण समुन्मार्ग प्रकाशयन् । मोहेन मोहयंल्लोकं योऽयं संमोहभावकः ॥ ६८ इत्यादिभावनोपेतो यस्तीव्रतपसा युतः । देवदुर्गतिमाप्नोति तदृते भवभागिह ॥ ६९ ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्यादि भावयेत् । प्रशस्तभावनोपेतो यः स याति शुभां गतिम् ॥ ७० उपाध्याय और साधुओंकी ऊपरसे भक्ति करता है, परंतु हृदयमें उनके प्रति अरुचि रखता है वह आचार्यविषयक, उपाध्यायविषयक और साधुविषयक मायावी है। ऐसी भावनाओसे युक्त मुनिको किल्बिषभावनावाला मुनि कहते हैं ।। ६५ ॥ ( अभियोगि-भावनाका स्वरूप । )- मृष्ट आहारके आस्वादनके लिये जो मंत्रतंत्रादिकोंमें तत्पर रहता है, जो इन्द्रियसुखके लिये मंत्रतंत्रादिक करता है, वह अभियोगिकनामक निन्द्यभावनासे युक्त है ऐसा समझना चाहिये ।। ६६ ॥ ( आसुरीभावनावाले साधुका स्वरूप। )- जिसका महाकोप अन्य भवमेंमी जानेवाला है ऐसे महाकोपी मुनिको अनुबद्धमहारोष धारण करनेवाला मुनि कहते हैं। तथा जो कलह करता है, तथा जो संक्लेशपरिणाम धारण करता हुआ तीव्र तप करता है वह आसुरीभावनाओंका धारक मुनि माना जाता है ।। ६७ ॥ ( संमोहभावनावाले मुनिका स्वरूप । )- जिसने जिनेश्वरका बताया हुआ मोक्षमार्ग नहीं माना है अर्थात् जिससे रत्नत्रयमार्गमें दूषण दिखाये जाते हैं ऐसे मोहसे-मिथ्यात्वसे जो लोगोंको मोहित करता है तथा आप्ताभासों-हरिहरादिकोंद्वारा चलाया हुआ यज्ञमें पशुवध करना धर्म है इत्यादि कुमार्गोंको प्रगट कर जो लोगोंको मोहित करता है वह मुनि संमोहभावनावाला समझना चाहिये ॥ ६८ ॥ जो मुनि कान्दी आदिक भावनाओंसे युक्त होकर तीव्र तपश्चरण करता है वह देवदुर्गतिको प्राप्त होता है । अर्थात् मरणोत्तर कंदर्प जातिके देवोंमें, आभियोग्य देवोंमें, तथा किल्बिषिक देवोंमें यानी हीन देवोंमें जन्म लेता है ॥ ६९ ॥ ( प्रशस्त भावनायुक्त मुनिको शुभगतिकी प्राप्ति । )- उपर्युक्त कुभावनाओंसे भिन्न जो शुभभावनायें हैं उनकी भावना करनेवाला मुनि प्रशस्त भावनावाला है । अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, तप और वीर्य आदिक गुणोंका आदर, मनन करनेवाली भावनाओंमें जो तत्पर रहता है उसको प्रशस्त-शुभगतिकी प्राप्ति होती है । अर्थात् वह इन्द्र सामानिकादि श्रेष्ठ देवोंमें जन्म लेता है ॥ ७० ॥ १ आ. गृया २ आ. यतिः ३ आ. तपोयुत ४ आ. भावयन् ५ आ. उत्तमभावनोपेतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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