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________________ -११. ८६) सिद्धान्तसारः (२७५ परमेष्ठी परज्योतिर्ध्यानमास्कन्तुमर्हति । तस्मादुद्ध्वस्तयोगी स समुच्छिन्नक्रियाभिधम् ॥८० सत्सूक्ष्म काययोगं तं तत्र सूक्ष्मक्रियाभिधम् । प्राणापानादिकस्पन्दक्रियाव्यापारवर्जनात् ॥ ८१ तत्र ध्याने भवत्यस्य सत्सामर्थ्यमयोगिनः । कर्मसंतानविच्छित्तेः कारणं भववारणम् ॥ ८२ यथाख्यातं च चारित्रं तदा तस्य प्रजायते । साक्षान्मोक्षकसत्तत्त्वहेतुभूतं महात्मनः ॥ ८३ एतन्महातपः पूतं कर्मनिर्जरणक्षमम् । अस्माच्च निर्जरा पूता सैवोपक्रमजा मता ॥ ८४ अथावसरसंप्राप्तं मोक्षतत्त्वं निगद्यते । साक्षाच्च केवलं तस्य हेतुस्तद्घातिनां क्षयात् ॥ ८५ ज्ञानस्यावरणं तावद्दर्शनावरणं तथा। मोहनीयान्तराये च घातिकर्माणि तज्जगुः ॥ ८६ (तीसरा सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति ध्यान।)- जब काययोग सूक्ष्म होता है तब परमेष्ठी, उत्कष्ट ध्यानरूपी ज्योतिके धारक वे केवली सक्ष्मक्रिया नामक तीसरा शक्लध्यान धारण करते हैं। इस ध्यानसे योग सब नष्ट होते हैं और वे — समुच्छिन्नक्रिया' नामक चौथा ध्यान धारण करते हैं। उस समय श्वासोच्छ्वासादि क्रिया बंद होती हैं। इस ध्यानमें इस अयोगकेवलीका सामर्थ्य बढता है, जो कि कर्मसमूहका नाश करनेवाला और संसार नष्ट करनेवाला है ।। ८०-८२ ।। ( यथाख्यात-चारित्रकी प्राप्ति।)- उस समय उस महात्माको साक्षात् मोहरूपी उत्तम निर्दोष तत्त्वका कारणरूप यथाख्यात चारित्र प्राप्त होता है। इस प्रकार यह महातप पवित्र और कर्मकी निर्जरा करने में समर्थ है। ऐसे तपसे पवित्र निर्जरा होती है। इस निर्जराको उपक्रमजा निर्जरा कहते हैं। उपक्रम शब्दका अर्थ तप होता है। उससे होनेवाली निर्जराको उपक्रमजा कहते हैं। इस निर्जराकेद्वारा कर्म उदयमें आनेके पूर्वकालमेंही तपश्चरणके सामर्थ्यसे उदीर्ण करके उदयावलीमें प्रवेशित किया जाता है, और आम्र आदिके फलकी पक्वताके समान उपभोगमें लाया जाता है। यथाख्यात चारित्र संपूर्ण मोहकर्मके क्षयसे और उपशमसे आत्मस्वभावमें जो स्थिरता प्राप्त होती है वह यथाख्यात चारित्र है। चौथे ध्यानसे योग पूर्ण नष्ट होते हैं और आत्मामें अपूर्व स्थिरता प्राप्त होती है। इसलिये इसमें पूर्णता प्राप्त होती हैं ॥ ८३-८४ ॥ ( राजवार्तिक अ. ९ वा ) (मोक्ष-तत्त्वका निरूपण। )- अब सरल-अनंतसौख्ययुक्त मोक्षतत्त्वका प्रतिपादन किया जाता हैं। उस मोक्षप्राप्तिका कारण साक्षात्केवलज्ञान है और वह घातिकर्मोके क्षयसे होता है ।। ८५ ॥ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घातिकर्म हैं। मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग ये पांच बंधनकारण। ( इनका स्वरूप पूर्वमें कहा गया है।) इनका जब नाश होता है, तब आत्मामें नवीन कर्मबंध होना पूर्णतया रुक जाता है, तथा पुराने कर्म उदयमें आकर तथा उनकी उदीरणा होकर नष्ट होते हैं। उनकी निर्जरा होती है। तब १ आ. ते जगुः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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