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________________ २७४) सिद्धान्तसारः (११.७२ तस्य क्षपयतस्तत्र प्रशमं नयतोऽपि च । मोहस्य प्रकृतीः कुण्ठकुठारात्तरुभेदवत् ॥ ७२ तत्पृथक्त्वसुवीतर्कवीचारं ध्यानमुत्तमम् । जायते जितकर्मोघमघविध्वंसकारिणः ॥ ७३ दुरन्तं मोहजालं तन्निर्मलं निकषनिह । स एवातिविशुद्धात्मा ज्ञानावृतिनिरुन्धनात् ॥ ७४ ।। स्थितिहासक्षयौ कुर्वश्रुतज्ञानोपयोगवान् । अर्थव्यञ्जनयोगानां सत्संक्रान्तिविवर्जनात् ॥ ७५ स्थिरचित्तकवृत्तिश्च कषायपरिवजितः । वैडूर्यमणिवनित्यं निर्मलं हि यतो महान् ॥ ७६ ध्यात्वा निवर्तते नैव तस्य ध्यानं सुनिर्मलम् । यदेकत्ववितकं तत्तत्र केवलमश्नुते ॥ ७७ ।। तेन ध्यानाग्निना चैव घातिकर्मेन्धनानि सः । दग्ध्वाप्नोति रुचि धर्म कर्मयुक्तः शुभानि च ॥७८ स यदान्तर्मुहूर्तायुः शेषकर्मसमस्थितिः । बादरं काययोगं तं परिहृत्यावलम्बते ॥ ७९ अथवा उपशम करता है । जैसे अतीक्ष्ण कुल्हाडीसे वृक्ष शनैः शनैः काटा जाता है वैसे पहले शुक्लध्यानधारकके द्वारा शनैः शनैः मोहकी प्रकृतियां क्षीण या उपशान्त की जाती हैं ॥७१-७२।। यह पृथक्त्ववितर्कविचार- ध्यान पापनाश करनेवाले योगिसे उत्तमतया किया जाता है और इससे कर्मसमूहका नाश होता है । ७३ ॥ दुसरे शुक्लध्यानको जब योगी प्रारम्भ करता है तब जिसका नाश करना अतिशय कठिन है ऐसा मोहकर्म नष्ट होता है। तथा योगी श्रुतज्ञानोपयोगसे युक्त होकर ज्ञानावरण कर्मको रोकता है। अर्थात ज्ञानावरण कर्मकी स्थितीका न्हास प्रथमतः कर अनन्तर उसका नाश करता है । उस समय अर्थसङक्रान्ति, व्यञ्जनसङक्रान्ति और योगसङक्रान्तियोंका अभाव होता है ॥ ७४-७५ ॥ (एकत्ववितर्क- ध्यानका विवरण । )- जब यतिराजकी चित्तवृत्ति प्रथम शुक्लध्यानसे अधिक स्थिर होती है और जब वे कषायरहित होते हैं तब वैडूर्यमणिके समान निर्मल होकर वे नहीं लौटते हैं अर्थात् दूसरे ध्यानमें वे तत्पर होते हैं प्रथम ध्यानके तरफ वे नही आते। ऐसे निर्मलध्यानको एकत्ववितर्क नामक शुक्लध्यान कहते हैं । इस शुक्लध्यानसे केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है । इस ध्यानरूपी अग्निसे ज्ञानावरणादि घातिकर्मरूपी इन्धन जलाकर यतिराज अतिशय प्रकाशमान होते हैं । अघातिकर्मही अब अवशिष्ट रहे हैं। इसके अनंतर वे केवली भगवान् आयुष्यकर्म जबतक कुछ अवशिष्ट रहा है तबतक विहार करते हैं ॥ ७६-७७ ॥ उस ध्यानाग्निसे वे मुनि घातिकर्मरूप इन्धनको जलाकर मेघोंसे मुक्त हुए सूर्यके समान महाज्योतिको अर्थात् केवलज्ञानको प्राप्त होते हैं ॥ ७८ ॥ जब योगीके बाकी कर्मोकी स्थिति आयुकर्मके समान अन्तर्मुहूर्त रह जाती है तब बादरकाय योगको छोडकर योगी सूक्ष्मकाय योगका अवलम्ब करते हैं ।। ७९ ॥ १ आ. कषायप ग्वजितः २ आ. निर्मलत्वयुतो महान् ३ महाज्योतिर्मेघमुक्तांशुभानिव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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