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सिद्धान्तसारः
(११.८७
बन्धहेतोरभावेन निर्जरायाश्च सर्वथा । सर्वकर्मविमोक्षोऽयं मोक्षोऽभाणि पुरातनैः ॥ ८७ शरीरेण ' विमुक्तस्य कलङ्करहितस्य च । आत्मनोऽनन्तसौख्यादिभावान्तरमयं पुनः ॥ ८८ कर्माष्टकविनिर्मुक्तास्त्रिलोकाग्रव्यवस्थिताः । अनन्तसुखनिर्मग्ना भाविनं कालमासते ।। ८९ ये ते सिद्धाः प्रयच्छन्तु मम भक्तिमतोऽचिरात् । सिद्धि विशोध्य कर्माणि कुक्षेत्रपतितस्य च ॥ ९० अज्ञानेनापि यत्प्रोक्तं श्रीसिद्धान्तमतं ? कियत् । तत्तदाराधनायैव निर्गुणां ख्यातिमीप्सुना ' ॥९१ अगाधस्त्वागमाम्भोधिः श्रीसर्वज्ञनिवेदितः । गौतमादिगणेन्द्रर्योऽवगूढः स कथं पुनः ॥ ९२ मादृशैर्दुरभिप्रायैर्दुष्टकालसमस्थितैः ४ । नृकीटः शक्यते ज्ञातुं सदुपाध्यायवजितैः ॥ ९३ केवलं सांप्रतं जाते दुःषमाकालयोगतः । म्लेच्छान्ते भारते क्षेत्रे जैनी वागतिदुर्लभा ।। ९४
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आत्मामें कर्म बिल्कुल नहीं रहता । ऐसी जो कर्मरहित, शुद्ध, अनंतज्ञानादि गुणपरिपूर्ण आत्माकी अवस्था उसे पुरातन महर्षि मोक्ष कहते ।। ८६-८७ ।।
उस समय आत्मा औदारिकादि पांचों शरीरोंसे रहित होता है । तथा कलंक - कर्मरहित होता है । और आत्मा अनन्त सौख्य, अनंत ज्ञान-दर्शन वीर्य संपन्न होता है । पूर्वकी संसारावस्था नष्ट होकर वह उपर्युक्त शुद्ध अवस्थान्तर प्राप्त होता है ॥ ८८ ॥
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( सिद्धपरमेष्ठीका स्वरूप । ) - ज्ञानावरणादि आठों कर्मोंसे सिद्ध परमेष्ठी रहित होते हैं। त्रैलोक्यके अग्रभाग में सिद्धशिलापर अन्तिम तनुवातवलय में वे विराजमान होते हैं । वे अनन्त सुखों में सदा निमग्न रहते हैं । और भावी कालमेंभी वे अनन्तसुखीही रहेंगे । क्योंकि, बंधके कारण मिथ्यात्वादिक उत्पन्न करनेवाला कर्म अब उनके पास नहीं है । कर्मका अत्यन्त अभाव हो गया है । जैसे बीज जल जानेपर अंकुर उत्पन्न नहीं होता वैसा कर्मबीज नष्ट होनेसे अब संसारांकुर उत्पन्न नहीं होता ।। ८९ ।।
( ग्रंथकारकी सिद्धोंको विज्ञप्ति । ) - हे सिद्धपरमेष्ठिन् ! मैं कुक्षेत्र में पड़ा हूं, भक्ति तत्पर ऐसे मेरे कर्मोंको नष्ट कर मुझे आप सिद्धिपद दें । हे प्रभो ! निश्चयसे ज्ञानादि गुणोंके साथ कीर्तिको चाहनेवाले मैने यह सिद्धान्तका मत अज्ञानसे थोडासा कहा है ।। ९०-९१ ।। ( आगमसमुद्रका स्वरूपबोध मुझे नहीं है । ) - श्रीसर्वज्ञ महावीरप्रभुने जिसका स्वरूप कहा है, वह आगमसमुद्र अगाध है । उसके तलका स्पर्श करना शक्य नहीं है । ऐसे आगमसमुद्र गौतमादि गणेशोंने प्रवेश किया है । परंतु जो उत्तम उपाध्याय से - सिद्धान्तज्ञ गुरुसे रहित हैं, तथा पंचमकाल, जो कि दुष्ट है, उसमें उत्पन्न हुए हैं और खोटे ज्ञानसे युक्त हम सरीखे मनुष्य हैं, उनके द्वारा यह सर्वज्ञ प्रतिपादित आगम जानना शक्य नहीं है ।। ९२-९३ ।।
( अब जिनवाणीका पाना दुर्लभ है । ) - दुःषमाकालके संबंधसे यह भारतक्षेत्र म्लेच्छों से व्याप्त हुआ है । इसमें अब जिनेश्वरकी वाणी प्राप्त होना अत्यंत दुर्लभ है ।। ९४ ॥
१ आ. अशरीरस्य सतः २ आ. गतं
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३ आ. लिप्सया ४ समाश्रितः ५ आ. याते
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