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________________ सिद्धान्तसारः -१०. १४४) (२५९ ३ * चतुविधस्य' संघस्य योऽपराधान्विभाषते । अभाष्योऽवन्दनीयश्च स गणो गणकोऽथवा ॥ १३७ स्वाध्यायापेक्षया साधुः सेवते यदि यत्नतः । औद्देशिकं ? ततस्तस्मात्प्रतिक्रान्तिः स शुद्धयति ॥ १३८ दुःशीलक्रोधमिथ्यात्वमानमायाविलैः सह । विहारे पञ्चकल्याणं जायते शुद्धिहेतवे ॥ १३९ अर्हदाचार्य साधूनामुपाध्यायस्य वा पुनः । अवर्णे वा प्रमादन क्षमणेन विशुद्धयति ॥ १४० क्रोधेन गर्वतो वापि कृते तेषां विनिन्दने । कर्तुमिथ्यादृशो नास्ति दण्डः संसारभागिनः ॥ १४१ शिलायां भूमिदेशे वा जङ्घाया जठरेऽपि वा । विलिख्य पठतः सूत्रं प्रायश्चित्तं प्रजायते ।। १४२ अागृहे भुक्ति कुर्वन्वा च्युतधर्मिणः । सोपस्थान चतुर्थेन शुद्धत्यज्ञानतो यतिः ॥ १४३ अनाभोगान्मुहुस्तस्य मासिको दण्ड इष्यते । आभोगेन तु यात्येष मूलभूमि नराधमः ॥ १४४ ( संघापराध प्रगट करनेवालोंका प्रायश्चित्त । ) - चार प्रकारका संघ - ऋषि, यति, मुनि और अनगार यह चार प्रकारका संघ है अथवा मुनि, आर्यिका श्रावक और श्राविका ऐसा चार प्रकारका संघ हैं। इनके जो मुनि दोष प्रगट करता है उसके साथ कोई नहीं बोले; तथा उसकी वन्दनाभी नहीं करें, तथा गणसे उसको निकाल देना चाहिये । यदि दूसरे गणमें वह जायगा तो उससे भी उसको हटाना चाहिये । यदि वह पश्चात्तापसे संतप्त होकर 'हे भगवन् मुझे प्रायश्चित्त दीजिये ऐसा कहेगा तो चातुर्वर्ण्य श्रमणसंघमें उसकी विशुद्धि करनी चाहिये ॥ १३७॥ ( औदेशिक प्रायश्चित्त । ) - यदि कोई मुनि स्वाध्यायकी अपेक्षासे उद्देशाशिक दोषोंका सेवन करता है तो वह प्रतिक्रमणसे शुद्ध होगा ।। १३८ ।। ( मिथ्यात्वी - साधुके साथ विहारसे प्रायश्चित्त । ) - दुःशील, क्रोधी, मिथ्यात्वी, मानी और मायावी ऐसे मनुष्योंके साथ साधु विहार करें तो उसकी शुद्धिके लिये पंचकल्याण प्रायश्चित्त कहा है ।। १३९ ।। ( अर्हदादिकोंके अवर्णवादका प्रायश्चित्त । ) - अर्हन्त, आचार्य, साधु अथवा उपाध्याय इनके ऊपर प्रमादसे जो मुनि अवर्णवाद करता है-दोष न होते हुएभी दोषारोपण करता है वह एक उपवाससे शुद्धि प्राप्त करता है । क्रोधसे अथवा गर्वसे उनकी निंदा यदि साधुने की तो संसारमें घूमनेवाले उस मिथ्यादृष्टिको प्रायश्चित्त नहीं है ।। १४० - १४१ ॥ ( शिलादिकों में सूत्र लिखनेवालेको प्रायश्चित्त । ) - शिलापर, भूमिपर, जांघोंपर और पेटपर कोई साधु सिद्धान्तसूत्र लिखकर यदि उसे पढता है उसको प्रायश्चित्त है अर्थात् शिला और भूमिपर सूत्र लिखनेसे उपवास प्रायश्चित्त तथा उदरादिकपर लिखने से आलोचना प्रायश्चित्त है ।। १४२ ॥ ( अश्रावकों के यहां आहारका प्रायश्चित्त । ) - जो श्रावक नहीं है ऐसे मिथ्यादृष्टिलोगोंके घरमें तथा जो धर्मच्युत है ऐसे लोगों के घरमें अज्ञान से यदि मुनि आहार लेंगे तो १ आ. चतुर्वर्णस्य २ आ. औद्देशिकादिकं ३ आ. प्रतिक्रान्तेः Jain Education International For Private & Personal Use Only ४ आ. अवर्णादौ ५ आ. दर्पतो । www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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