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________________ २६०) सिद्धान्तसार: ( १०. १४५ - ज्ञानोपकणं किञ्चिद्दीयमानं महौषधम् । निषेधयेत्प्रमादेन पञ्चकल्याणमश्नुते ॥ १४५ तदेव च मुहुः साधोरावासमथवा पुनः । प्रत्याख्यातुर्भवेन्नित्यं मासिकं शोधनं मुनेः ॥ १४६ चाण्डालेन समं स्याच्चेच्छुप्तिर्यस्य प्रसादतः । पञ्चकल्याणकेनासौ शुद्धः स्यादिति निश्चितम् ॥ १४७ ब्राह्मणक्षत्रियाणां च वैश्यानां च प्रकल्पते । जैनी मुद्रा निहीनाय दत्ता पापाय जायते ॥ १४८ मुलोत्तरगुणेष्वेषु साधूनां यानि कानिचित् । प्रायश्चित्तानि तानीह ज्ञातव्यानि जिनागमात् ॥१४९ वस्त्रप्रक्षालनात्तावदायिकाणां ' विशोषणम् । वस्त्रयुग्ममतिक्रम्य तृतीये मूलमिष्यते ॥ १५० अपनाययुता ( ? ) नित्यकल्पिता शून्यकारिणी । आज्ञाविवर्जिता देशान्निःसार्या या विधर्मिणी ॥ प्रतिक्रमणके साथ उपवासका प्रायश्चित्त लेना चाहिये । अनाभोगसे अप्रगटरूपसे वारंवार यदि मुनि आहार लेंगे तो उनको मासिक प्रायश्चित्त है और आभोग से - प्रगटरूपसे यदि बार बार आहार लेंगे तो मूलभूमि नामक प्रायश्चित्तको पात्र है - मूलभूमि प्रायश्चित्तमें दिवसादि रूपसे दीक्षाच्छेद होता है ।। १४३-१४४ ।। ( ज्ञानोपकरण और औषधनिषेधका प्रायश्चित्त । ) - ज्ञानका उपकरण अर्थात् शास्त्र और औषध देनेवालोंका जो साधु प्रमादसे निषेध करेगा वह पंचकल्याण प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है । यदि उसी ज्ञानोपकरणका और औषधका वारंवार निषेध करनेवाले साधुको मासिक प्रायश्चित्त देना चाहिये तथा यतिको आवास - वसतिका देनेका कोई साधु निषेध करता है तो उसकोभी वही मासिक प्रायश्चित्त देना चाहिये ।। १४५ - १४६ ॥ ( चाण्डाल - स्पर्शका प्रायश्चित्त । ) - प्रमादसे जिस साधुको चाण्डालसे स्पर्श होगा उसको -साधुको पंचकल्याण तपसे शुद्धि होती है ऐसा निश्चित है ।। १४७ ।। ( जैनदीक्षा के अधिकारी ) - जैनी मुद्रा - दिगम्बर दीक्षाधारण ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंकोही योग्य है । इनसे जो हीन शूद्रादिक हैं उनको यदि दीक्षा दी जायगी तो दीक्षादाता प्रायश्चित्तयोग्य होता है ॥ १४८ ॥ ( अवशिष्ट प्रायश्चित्त आगमसे जानो । ) - मूलगुण और उत्तरगुणोंमें साधुओंके लिये जो अन्य कुछ प्रायश्चित्त कहे हैं वे जिनागमसे जानना चाहिये ॥ १४९ ॥ ( वस्त्रप्रक्षालनका प्रायश्चित्त । ) - यदि आर्यिका वस्त्रप्रक्षालन अप्रासुक जलसे करेगी तो उसे एक उपवासका प्रायश्चित्त है । आर्यिका अपने पास दो वस्त्र धारण करें । दोसे अधिक धारण करनेपर मासिक प्रायश्चित्तसे उसकी शुद्धि होगी ।। १५० ।। जो आर्यिका आज्ञापालन नहीं करती अर्थात् अपनी गणिनीकी आज्ञा नहीं मानती और जिसने धर्मत्याग किया है अर्थात् जो स्वच्छंदचारिणी हुई है, जिनशासनका त्याग किया है ( अपनायता नित्यकल्पिता शून्यकारिणी इस पदका अर्थ हमको मालूम नहीं है) जो आर्यिका यतिके १ आ. प्रक्षालने । २ आ. अपज्ञापयता नित्यं कलिपैः स्तन्यकारिणी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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