SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८) सिद्धान्तसारः ) १०. १२९ जल्पतस्तस्य शृण्वाना तिष्ठन्ति समीपगाः । तस्य दोषस्य तद्भागं चतुर्थ प्राप्नुवन्ति च ॥ १२९ यो गृह्णाति' परस्याथं यतीनां मध्यवर्त्यपि । स गृहस्थोपधिः सोऽयं षण्मासक्षपणैः शुचिः॥१३० स्वप्ने मैथुनसेवी च मद्यमांसाशनोऽपि वा । उपवासेन शुद्धः स्यात्स प्रतिक्रमणेन सः॥ १३१ कन्दर्पोद्रेकमायाति रामारूपावलोकनात् । सोऽयमालोचनायुक्तः कायोत्सर्गेण शुद्धयति ॥ १३२ परिग्रहग्रहप्रस्तो' यः सदा जायते यदि । मूलं तस्य समायाति न याति परमां गतिम् ॥ १३३ मिथ्यादृष्टिजनानां यः करोति कलहं पुनः । बहूपवाससंयुक्तं मौनं तस्य प्रदीयते ॥ १३४ मुनिमध्यगतो" यस्तु हस्ताभ्यां कुरुते कलिम् । तस्य षष्ठेन षण्मासान्प्रायश्चित्तमुपाश्रितः ॥१३५ असंयतजनानां हि बोधने विहिते सति । नृत्ये गाने च साधूनामष्टमं दण्ड इष्यते ॥ १३६ नीच, दुष्टता युक्त असत्यभाषण बोलनेवाले साधुके पास उसका भाषण सुनते हुए जो मुनि तिष्ठते हैं वे भी उसके असत्यभाषण दोषका चतुर्थांश दण्ड प्राप्त करते हैं ।। १२८-२९ ॥ ( अचौर्यव्रतका प्रायश्चित्त। )- जो मुनियों के बीचमें रहनेपरभी दूसरोंका धन ग्रहण करता है वह गृहस्थका परिग्रहण करता है ऐसा मुनि छह मासतक उपवास और पारणा करके पवित्र होता है ।। १३० ॥ (ब्रह्मचर्यव्रतका प्रायश्चित्त।)- जो साधु स्वप्नमें-अर्थात् निद्रामें मैथुनसेवन करता है किंवा मद्यपान और मांसाशन करता है वह प्रतिक्रमणपूर्वक उपवाससे शुद्ध होता है। जो साधु स्त्रीका रूप देखकर कामोद्रेकको प्राप्त होता है वह आलोचनायुक्त होकर कायोत्सर्गसे शुद्ध होता है ॥ १३१-१३२ ॥ (परिग्रहत्यागका प्रायश्चित्त।)- जो साधु हमेशा परिग्रहोंसे ग्रस्त रहता है उसको मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है अर्थात् उसे पुनर्दीक्षा धारणका प्रायश्चित्त है। ऐसा परिग्रहयुक्त साधु उत्तम गतिको-मुक्तिको प्राप्त नहीं होता है । १३३ ।। ( मिथ्यादृष्टिसे कलह करनेका प्रायश्चित्त। )- जो मिथ्यादृष्टि-जनोंसे कलह करता है उस मुनिको अनेक उपवाससहित मौनका प्रायश्चित्त आचार्य देते हैं। मुनियों के बीचमें जो मुनि हाथोंसे कलह करता है उस पापीको छह महिनोंतक दो उपवासपूर्वक पारणाका प्रायश्चित्त है ।। १३४-१३५ ।। ( निद्रामेंसे उठाना, नृत्य और गायन आदिका प्रायश्चित्त । )- जो साधु असंयमी लोगोंको निद्रामेंसे जगाता है, तथा साधुओंकोभी निद्रामेंसे जगाता है तथा तुम गाओ, नाचो ऐसा बोलता है उसको निरंतर तीन उपवासका प्रायश्चित्त है ॥ १३६ ॥ १ आः द्वितीयः २ आ. तृतीयं ३ आ. चतुर्थ ४ आ. पञ्चमं ५ आ. गण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy