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-१०. ५६)
सिद्धान्तसारः
(२४७
व्यापत्तौ त्रसजीवस्य सप्रमादाप्रमादयोः । एक कल्याणकं तद्वा नीरसाहारपञ्चकम् ॥ ४८ पञ्चकल्याणक दण्डे तस्मिन्नाभीक्ष्ण्ययोगतः । व्यापन्ने सति पञ्चाक्षे दत्किल्याणपञ्चकम् ॥४९ पीठादिचलने वास्मिन्व्यापन्ने सति जायते । निःप्रमादवतश्च्छेद एककल्याणपञ्चकम् ॥ ५० वसतेरदेशे चेत्पञ्चाक्षो दृश्यते मृतः । तन्निर्गतप्रविष्टानामेककल्याणकं भवेत् ॥ ५१ गृहस्थसंयतेभ्यो वा न यत्र कथिते सति । वृश्चिकादौ हतेऽन्येन क्षमणं पञ्चकं क्रमात् ॥ ५२ अनेनैव क्रमेणाऽपि सर्पादौ निहते सति । प्रयत्नेन तु कल्याणं मासिकं वा प्रयत्नतः ॥ ५३ यतीनामतियत्नेन विषीति प्रतिपादिते । अन्येन निहते तस्मिन्विशुद्धः समितो यतः ॥ ५४ भिषगादेशतो वह्नः प्रज्वालनमतिव्यथम् । अनापृच्छयातुरं कुर्वन्पञ्चकल्याणभाग्भवेत् ॥ ५५ कारिणे ननु गृह्णाति हरीतकीवचादिकान् । यदि न दुष्यति तदा साधुरिति वाचो विपश्चिताम् ॥
(त्रसजीवके नाशका प्रायश्चित्त । )- असावधानतासे एक त्रसजीवका घात यदि मुनि करे तो उसे एक कल्याण नामक प्रायश्चित्त है अर्थात् एक निर्विकृति, एक पुरुमंडल, एक आचाम्ल, एक एकस्थान और एक उपवास । और अप्रमाद अवस्थामें त्रसजीवका घात यदि मुनिसे हो जाय तो पांच नीरसाहार ग्रहण करनेका प्रायश्चित्त आचरें ॥ ४८ ।।
मुनि प्रमादरहित है परंतु पीठादिके चलनेसे अथ अकस्मात् कोई जीव मर जाय तो एक कल्याणपंचक नामका प्रायश्चित्त है जिसका ऊपर उल्लेख आया है ॥ ४९॥
वसतिकासे बाहर निकलते समय अथवा वसतिकामें प्रवेश करते समय यदि वसतिका द्वारदेशमें पञ्चेन्द्रिय जीव मरा हुआ देखा जाय तो एक कल्याणक प्रायश्चित्त है अर्थात् निर्विकृति आदिक पांचोमेंसे कोईभी प्रायश्चित्त जो आचार्य बतावे मुनि उसका आचरण करें॥५०-५१ ।।
( बिच्छुके नाशका प्रायश्चित्त । )- गृहस्थ अथवा मुनियोंने बिछु आदिक जन्तु यत्नपूर्वक पकडो ऐसा नहीं कहा और किसीने उसका घात किया तो गृहस्थ और मुनिको क्रमसे पांच उपवासका प्रायश्चित्त है ।। ५२ ॥
इसी प्रकारसे सादिकोंका घात कोई करे तो प्रयत्न पूर्वक उसको छोड दो ऐसा कहनेपरभी यदि कोई मारेगा तो कल्याणनामक प्रायश्चित्त है और अप्रयत्नपूर्वक घात किया होगा तो मासिक प्रायश्चित्त है अर्थात् पंचकल्याण नामक प्रायश्चित्त है। यतियोंने अतिशय प्रयत्नपूर्वक विषयका प्रतिपादन किया अर्थात् बहुत सावधानतासे बिच्छु, सर्प आदिक प्राणीका रक्षण कर उसे छोड दो ऐसा कहनेपरभी यदि किसीने उनको मार डाला तो मुनिको प्रायश्चित्त नहीं है, क्योंकि मुनि विशुद्ध है-समितियुक्त हैं ।। ५४ ॥
वैद्यकी आज्ञासे अग्निको बुझाना, आदि करे और रोगी मुनिको इस विषयमें कुछभी न पूछे तो मुनि पञ्चकल्याण प्रायश्चित्तको ग्रहण करें ॥ ५५ ॥
कुछ कारणसे हर्र, वचा आदिक यदि मुनि ग्रहण करे तो वह निर्दोष है ऐसा विद्वान् कहते हैं ।। ५६ ॥
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