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सिद्धान्तसारः
(१०.४१
तृणलोष्टादिकच्छेदे स्तोके वा हस्तकर्मणि । कायोत्सर्गमितो दण्डो मनोमासिकसेवनात्' (?)॥४१ मृत्तिकायवगोधूममुद्गमाषादिमर्दने । हरितत्रसकायानां संघट्टेऽपि तनत्सृतिः ॥ ४२ उद्धूलितपदस्तोये तोयलिप्तपदोऽथवा । पांसुमध्ये विशेद्यस्तु तस्य स्यात्पुरुमण्डलम् ॥ ४३ यस्तु कर्दमलिप्ताङघ्रिजले विशति संयतः । कल्याणपञ्चकं तस्य जायते शुद्धिहेतवे ॥ ४४ आ.कतृणविच्छेदे छिन्ने वानंतकायिके । आचाम्लादि दिशेइंडं एकस्थानं द्वितीयके ॥ ४५ अनंतकायिनो ज्ञेयाः सूरणस्नुहिमूलिकाः । अन्ये वा स्युगडूच्याद्या बहवोऽनंतकायिकाः ॥ ४६ यस्य मूलेषु शाखायां पत्रे वा सन्ति सर्वदा । अनन्तकायिनो जीवा नियन्ते तद्विघाततः ॥ ४७
तृण, मट्टीका डेला, आदिक पदार्थ हाथसे तोडने फोडने पर तथा हाथसे कुछ अन्य कार्य करनेपर कायोत्सर्ग मात्र दण्ड है अर्थात् कायोत्सर्ग करनेसे शुद्धि होती है। ( — मनोमासिक सेवनात् ' इसका अर्थ हमारे ध्यानमें नहीं आता है ) ॥४१॥
मट्टी, जौ, गेहुं, मूंग, उडद आदि धान्योंका मर्दन करनेपर हरी-सचित्त वनस्पति और त्रसकायके आपसमें संघट्ट-मुनिके हाथ आदिके द्वारा होनेपर कायोत्सर्गसे शुद्धि होती है ॥४२॥
( पुरुमंडल प्रायश्चित्तका दोष । )- जिसके पांव धूलीसे भरे हुए हैं ऐसा मुनि पानीमें चला जाय अथवा पानीसे जिसके पांव भीगे हैं ऐसा मुनि धूलीमें प्रवेश करे तो पुरुमंडल नामक प्रायश्चित्तसे वह शुद्ध होता है । अर्थात् वह कांजीभोजन करनेसे शुद्ध होता है ।। ४३ ॥
कीचडसे जिसके पांव भर गये हैं-लिप्त हुए हैं ऐसा मुनि यदि जलमें प्रवेश करेगा तो उसकी शुद्धिके लिये कल्याणपंचक नामका प्रायश्चित्त है। अर्थात् वह मुनि जिससे जिह्वा और मन विकारयुक्त न हो ऐसा आहार करें, जिसको निर्विकृति आहार कहते हैं। पुरिमंडल आहार, आचाम्ल आहार-भात इमलीका पानक खावें, एक स्थान करें और उपवास करें। एक निर्विकृति आहार, एक पुरुमंडल आहार-कांजी भोजन, एक आचाम्ल आहार, एक एकस्थान और एक उपवास ऐसे पांच प्रकारको कल्याणपंचक प्रायश्चित्त कहते हैं । ४४ ॥
___ यदि मुनि गीली घास तोडेगा अथवा अनंतकायिक वनस्पति तोडेगा तो आचार्य उसे आचाम्लाहारका प्रायश्चित्त और एकस्थानका प्रायश्चित्त देवें ।। ४५ ॥
( अनंतकायिक वनस्पति और उसका लक्षण । )- सूरण, स्नुही-तीन धारवाली नागफणी नामक वनस्पति, मूलक, गडूची-गिलोय आदि शब्दसे कुमारी आदिक अनेक अनंतकायिक वनस्पति हैं। जिसके मूलमें, शाखामें और पत्रोंमें सर्वदा अनंतकायिक जीव रहते हैं और उनके ऊपर आघात करनेसे-प्रहार करनेसे-मूल, शाखा, पत्रके ऊपर आघात करनेसे वे जीव मरते हैं । ४७ ।।
१ मनोमासिकसेवने २ आ. मलिका:
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