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________________ २४८) सिद्धान्तसारः (१०.५७ बीजपूरकबिल्वादिग्रहणेन तु शुद्धयति । एककल्याणकेनैव यदि कारणमाश्रितः ॥ ५७ कन्दर्पकौतुकुच्ये वा स्तोके मिथ्या प्रजल्पने । मिथ्याकारेण शुद्धः स्यानिषिद्ध मलसर्जने ॥५८ द्वादश योजनान्येष वर्षाकालेऽभिगच्छति । यदि सङ्घस्य कार्येण तदा शुद्धो न दुष्यति ॥ ५९ यदि वादविवादः स्यान्महामतविघातकृत् । देशान्तरगतिस्तस्मान्न च दुष्टो वर्षास्वपि ॥ ६० धातुवादेऽथवा गन्धयुक्ते रसविपर्यये । सधर्मरेककल्याणं दर्शनान्मासिकं परः ॥ ६१ चित्तमैथनसेवायां मिथ्याकारण शद्धयति । तत्र तीवाभिलाषेण मासिकं लभते मुनिः॥६२ मैथुनस्योपसेवायां यतीनां दण्ड इष्यते । मासांस्तु चतुरो याववेकान्तरितभोजनात् ॥ ६३ किसी कारणसे बीजपूर-बिजौरा, बेलफल आदिका ग्रहण यदि मुनि करें, तो वह एक कल्याणसेही शुद्ध होता है ॥ ५७ ।। ( मिथ्याकारसे शुद्धि । )- कंदर्पवचन-रागके उद्रेकसे प्रहासमिश्रित अशिष्ट वचनप्रयोग, कौत्कुच्य- हसीपूर्वक भाण्डवचन बोलना, भौंहें आंखें आदिकके अभिनयके साथ हसीपूर्वक भाण्डवचन बोलना, थोडासा झूठ वचन बोलना ऐसे कार्य यदि मुनिके द्वारा होंगे तो मिथ्याकारसे शुद्धि होगी अर्थात् मेरा यह कार्य अयोग्य हुआ ऐसा वह बोलें । तथा निषिद्ध स्थानपर यदि मलमूत्रक्षेपण मुनि करें तो मैंने यह कार्य मिथ्या किया है, ऐसा वचन बोलें, जिससे अपनी निंदा व्यक्त होती है ।। ५८ ।। ( संघकार्यके लिये वर्षाकालमें गमन प्रायश्चित्तयोग्य नहीं।)- वर्षाकालमें संघके कार्यके लिये यदि मुनि बारह योजन तक कहीं जायगा तो वह प्रायश्चित्तहि नहीं है । यदि वाद विवादसे महासंघका नाश होनेका प्रसंग हो तो वर्षाकालमें भी देशान्तरमें जाना दोषयुक्त नहीं है ॥ ५९-६० ॥ (धातुवादादिक कथनमें प्रायश्चित्त । )- धातुवादका कथन-उपदेश करनेपर तथा गंधादिक तयार करनेका उपदेश, पारदका शोधन मारणका उपदेश करनेपर एक कल्याण और मासिक प्रायश्चित्त देना चाहिये । उपर्युक्त उपदेश देते हुए मुनिको साधर्मिक देखे तो उपदेश देनेवालेको एक कल्याण नामक प्रायश्चित्त और अन्य धर्मियोंके द्वारा देखे जाय तो मासिक प्रायश्चित्त देना चाहिये ॥ ६१॥ ( मैथुनसेवाका प्रायश्चित्त।)- मनमें मैथुन सेवाका विचार आनेसे मिथ्याकारसे शुद्धि होती है । और उसमें तीव्र अभिलाषा उत्पन्न हो गई तो मासिक नामक प्रायश्चित्त है ॥ ६२ ॥ ( मैथुनसेवन दोषके लिये प्रायश्चित्त । )- यदि मुनि मैथुनसेवन करे तो उनको यह दण्ड है-चार महिनेतक एकान्तरित भोजनका प्रायश्चित्त है । अर्थात् एक दिन भोजन करें, दूसरे दिन उपवास करें, ऐसी प्रायश्चित्त विधि सतत चार महिने तक करनी चाहिये; तब इस दोषका परिहार होता है ।। ६३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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