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________________ -९. २२५) सिद्धान्तसारः श्रीमत्सामन्तभद्रं वचनमिति बुधः प्रीतिमतविनीतो ॥ धृत्वा संवृत्य कर्माण्यखिलभवभवोद्भूतिहेतोनिशल्यः । योऽभूच्छीवीरसेनो विबुधजनकृताराधनोऽगाधवृत्तिः ॥ तस्माल्लब्धप्रसादे मयि भवतु च मे बुद्धिवृद्धौ विशुद्धिः ॥ २२४ ॥ सोऽयं श्रीगुणसेनसंयमधरप्रव्यक्तभक्तिः सदा । सत्प्रीति तनुते जिनेश्वरमहासिद्धान्तमार्गे नरः ॥ भूत्वा सोऽपि नरेन्द्रसेन इति वा यास्यत्यवश्यं पदम् । श्रीदेवस्य समस्तसाधुमहितं तस्य प्रसादात्ततः ॥ २२५ ॥ इति श्रीसिद्धान्तसारसंग्रहे पण्डिताचार्यश्रीनरेन्द्रसेनविरचिते अजीवतत्त्वआस्रवतत्त्व बन्धतत्त्वनिरूपणं नवमोऽध्यायः॥ यह श्रीसमन्तभद्र स्वामीका वचन है ऐसा समझकर, अन्तःकरणसे नम्र होकर उस प्रिय वचनको धारण कर तथा अनेक भवोंमें उत्पत्ति होनेके कारण ऐसे संपूर्ण कर्मोंका संवर करके जो शल्यरहित हुए हैं, विद्वज्जनके द्वारा आराधाना की जानेपरभी जिनका स्वभाव गंभीरही है ऐसे श्रीवीरसेनआचार्यसे मुझे प्रसाद प्राप्त हुआ है, इसलिये मेरी बुद्धिकी वृद्धि में निर्मलता प्राप्त हो ।। २२४ ।। सेन नामक संयमधारी आचार्य में जिसने अतिशय व्यक्त ऐसी भक्ति हमेशा की है वह मनुष्य जिनेश्वरके महासिद्धान्तमार्गमें उत्तम प्रीति करता है तथा वह भी नरेन्द्रसेनके समान होता है और श्रीगुणसेन आचार्थके प्रसादसे संपूर्ण साधुओंसे पूज्य श्रीदेवसेन आचार्यके पदको अवश्य प्राप्त होते हैं। तात्पर्य यह है, कि नरेन्द्रसेन आचार्यके गुरु गुणसेन थे उनकी भक्ति करनेसे नरेन्द्र सेनाचार्यको श्रीदेवसेन आचार्यके पट्टपर अभिषेक हुआ वे देवसेनपट्टके अधीश बने ॥ २२५ ॥ पण्डिताचार्य श्रीनरेन्द्रसेन विरचित सिद्धान्तसार-संग्रहग्रंथमें अजीवतत्त्व, आस्रवतत्त्व और बंधतत्त्वका निरूपण करनेवाला नवमा अध्याय समाप्त हआ। १ आ. योऽयं २ आ. प्रसादादतः ३ आ. इति श्रीसिद्धान्तसारसङग्रहे आचार्यश्रीनरेन्द्रसेनविरचिते नवमोऽध्यायः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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